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आरक्षण में पारदर्शिता

पंचायत चुनावों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी कि संकट काल में कराया जाये। प्रदेश की पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि कोरोना और उसके कारण लागू लॉकडाउन के कारण जो आर्थिक क्षति हुई है उसकी रिकवरी शुरू हो। जिनके रोजगार गये हैं उनका पुनर्नियोजन हो जाये। अर्थव्यवस्था, कारोबार और शिक्षण-प्रशिक्षण की गतिविधियां शुरू हो। इसके बाद चुनावों का आयोजन किया जाये, क्योंकि पंचायत चुनाव ऐसी दुरूह प्रक्रिया है जिसका कोई विशेष लाभ नेतृत्व विकसित करने या फिर ग्रामीण में नहीं मिला है।

पंचायत चुनावों ने गांव-गांव, घर-घर विवाद और दुश्मनी की गहरी खाई खोद दी है। एक बार चुनाव होने के बाद अगले पांच साल तक दुश्मनी निकालने में बड़े पैमाने पर हिंसा होती है और काूनन व्यवस्था के समक्ष संकट खड़ा होता है। गौरतलब है कि जब देश में हर दिन साठ-सत्तर संक्रमण के मामले आ रहे थे तब लॉकडाउन लगाया गया था और जब दस हजार मामले आ रहे हैं और लगातार दूसरी लहर का खतरा बना हुआ है तब पंचायत चुनाव की प्रक्रिया को शुरू किया जा रहा है।

इसकी तत्काल न तो कोई जरूरत है और न ही इसके कोई फायदे सामने आये हैं। देश में टेÑन नहीं चल रही है, स्कूल ज्यादातर अभी बंदी जैसी स्थिति में हैं और यह ठीक भी है क्योंकि सतर्कता जरूरी है। ऐसे में जब सरकार पंचायत चुनाव कराने जा रही है तो पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि चुनाव के दौरान कोविड गाइडलाइन बहुत कड़ाई के साथ पालन किया जाये, क्योंकि दूसरी लहर का खतरा बना हुआ है। उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव एक जटिल प्रक्रिया है।

करीब नौ लाख प्रतिनिधियों का चुनाव त्रि-स्तरीय पंचायतों के गठन के लिए किया होता है। नौ लाख से अधिक प्रतिनिधियों के चुनाव में प्रत्याशियों की संख्या भी बीस-पच्चीस लाख तक पहुंच जाती है। इतनी बड़ी संख्या में जिला, क्षेत्र एवं ग्राम पंचायतों एवं उनके प्रमुखों के लिए आरक्षण प्रक्रिया को पारदर्शी तरीके से तय करना और इसमें आने वाली आपत्तियों का निस्तारण जटिल एवं श्रम साध्य प्रकिया है और इसमें प्राय: गड़बड़ी होती है।

गड़बड़ी का ही परिणाम है कि पचास प्रतिशत की आरक्षण व्यवस्था में सभी पदों पर एक बार आरक्षण और दूसरी बार ओपेन कैटेगरी में रखना चाहिए, लेकिन तमाम ऐसी पंचायतें हैं जिनका कभी आरक्षण ही नहीं हुआ। ऐसी भी पंचायतें हैं जो प्राय: आरक्षित ही रहीं। लखनऊ नगर निगम इसका ज्वलंत उदाहरण है। स्थानीय निकायों में भी पंचायत जैसी ही आरक्षण प्रक्रिया है। लखनऊ नगर निगम के लिए पांच बार चुनाव हुए लेकिन कभी एससी, एसटी या ओबीसी के लिए आरक्षित नहीं रही।

चार बार अनारक्षित रहने के बाद पांचवी बार महिलाओं के लिए आरक्षित की गयी। इस कारण राजधानी को पहली महिला मेयर मिलने में दो दशक लग गये। बहरहाल प्रदेश सरकार ने कभी आरक्षित नहीं हुई सीटों को प्राथमिकता से आरक्षित करने और आरक्षित सीटों को चक्रानुक्रम में अनारक्षित करने की जो स्पष्ट नीति लागू की है उससे उम्मीद है कि आरक्षण संबंध विसंगति दूरी होंगी और 1995 से चक्रानुक्रम आरक्षण का पालन किया जाये।

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