गुरु पूर्णिमा पर शिक्षकों को किया सम्मानित

1200 से अधिक गुरूजनों का सम्मान किया गया
लखनऊ। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ द्वारा अपने परिसर में गुरु पूर्णिमा जयंती के अवसर पर आज गुरुवार को आधुनिकशिक्षापद्धतौ गुरुशिष्यपरम्परायां च अन्तर्सम्बन्ध: विषय पर पर व्याख्यान गोष्ठी एवं प्रदेश के विभिन्न जनपदों से पधारे संस्कृत विद्यालयो/महाविद्यालयों के सेवानिवृत्त संस्कृत शिक्षकों व अन्य गुरूजनों को सम्मानित करने हेतु भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया। सर्वप्रथम दीप प्रज्वलन, माल्यार्पण के पश्चात् मुख्य अतिथियों का वाचिक स्वागत किया गया।
संस्थान के निदेशक विनय श्रीवास्तव ने अपने उद्बोधन में कहा कि उप्र संस्कृत संस्थान द्वारा अपने स्थापना काल से गुरु पूर्णिमा के कार्यकम का आयोजन करता रहा है। विगत कुछ वर्षों से गुरू पूर्णिमा के अवसर पर संस्कृत संस्थान संस्कृत के सेवानिवृत्त शिक्षकों को सम्मानित करने के कार्यक्रम का आयोजन कर रहा है। इस कार्यक्रम को और विस्तार देते हुए गुरूजनों का भी सम्मान करने का निर्णय लिया गया है जो कहीं से सेवानिवृत्त नहीं हैं और स्वयं के संसाधनों से बच्चों को संस्कृत की शिक्षा नि:शुल्क प्रदान कर रहें हैं। अब तक इस कार्यक्रम में संस्थान द्वारा 1200 से अधिक गुरूजनों का सम्मान किया गया है। आज के दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास” का जन्मदिन भी है। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उनका एक नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है और उनके सम्मान में गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है। महर्षि वेदव्यास जी ने वेदों का संकलन किया और मानव समाज को अमूल्य ज्ञान दिया।
कार्यक्रम में अतिथि के रूप में आमत्रित प्रो० ओम प्रकाश पाण्डेय ने वेद व्यास के व्यक्तित्व कृतित्व का विशद विवेचन किया। उन्होने कहा कि वेद चतुष्टय, पुराण इतिहास का लोकोद्धारक प्रणयन व्यास जी ने किया। प्रो. आजाद मिश्र ने गुरु शिष्य परंपरा के संवाहक तत्वों का विवेचन किया। उन्होंने गुरु में शिष्यत्व, आचरण, व्यवहार इत्यादि को जरूरी बताकर सभी का सन्निवेश महर्षि व्यास में घटित किया और शिक्षा पद्धति पर प्रकाश डालते हुए कहा कि जो शिक्षा पद्धति प्राचीन काल में थी वही शिक्षा पद्धति आज भी है। इसमें विषय और संसाधन आधुनिक हुए हैं। डॉ. रेखा शुक्ला द्वारा बताया गया कि भारतीय चिन्तन परम्परा में शिक्षा का उद्देश्य नि:श्रेयस का अधिगम ही है। गुरु सत्पथ का प्रदर्शक होता है जो शिष्य के अज्ञानान्धकार को नष्ट करके ज्ञानप्रकाश को प्रदान करने वाला गुरु ही होता है। प्रो. उमारानी त्रिपाठी द्वारा बताया गया कि भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान महनीय है। वस्तुत: गुरुतत्व ही ज्ञानरूप है। अंधकार विनाश के लिए गुरु प्रकाशात्मक रूप है।

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