नागरिकता कानून के विरोध में लगभग समूचा उत्तर भारत जल रहा है और कब यह आग पश्चिम से होते हुए दक्षिण भारत पहुंच जायेगी कोई नहीं जानता। देश के कई विश्वविद्यालयों के छात्र विरोध के नाम पर अपनी ताकत अजराकता पैदा करने में दिखा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नागरिकता कानून को लेकर तमाम लोगों को आशंकाएं हैं और एक बड़ा तबका इसका विरोध कर रहा है, लेकिन इस विरोध का एक राजनीतिक और लोकतांत्रिक रास्ता था।
जिन पार्टियों को यह स्वीकार नहीं था, उनका अस्वीकार्य महज लोकतंत्र में संख्या बल के सामने पराजित हो जाने के साथ ही खत्म नहीं हो जाता। देश की राजनीतिक पार्टियों को अपने विरोध को लोकतांत्रिक तरीके से आम लोगों के बीच ले जाना चाहिए था, तब शायद इसका असर सरकार पर भी पड़ता और लोकतंत्र भी मजबूत होता, लेकिन विपक्षी पार्टियों ने अपने विरोध को महज संसद के पटल में मतदान तक सीमित कर दिया है।
जब एक बार ये पार्टियां संसद के पटल पर मतदान में पराजित हो गर्इं तो उन्हें लगता है अब उनके समूचे विरोध की इतिश्री हो गई है। उन्हें लगता है कि उन्हें अब गर्व से अपनी हार को स्वीकार कर लेने का नैतिक अधिकार हासिल हो गया है। अगर देश में छात्र इस कदर उबल रहे हैं, तो कहीं न कहीं यह विरोधी पार्टियों के अंदर घटती लोकतांत्रिक प्रतिबद्घता, जद्दोजहद और लोकतांत्रिक चेतना का अभाव तो है ही, साथ ही साथ यह उनमें व्यवहारिक धरातल पर उतरकर पसीना बहाने की आनाकानी का भी नतीजा है। यही वजह है कि जो काम राजनीतिक पार्टियों को करना चाहिए था, वह काम अराजकता की स्टाइल में छात्र करने की कोशिश कर रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए फायदेमंद नहीं है, भले इसे लोकतंत्र के लिए उबाल का जामा पहनाये जाने की कोशिश की जा रही हो।
विरोधी राजनीतिक पार्टियां अपनी जिम्मेदारी और भूमिका का बोझ छात्रों के कंधों पर नहीं डाल सकतीं, न ही छात्रों को विरोधी राजनीतिक पार्टियों के रू प में स्वीकार किया जा सकता है। निश्चित रू प से किसी भी जीवंत लोकतंत्र में छात्रों की अपनी राजनीतिक भूमिका होती है, लेकिन यह भूमिका सरकार के विरूद्घ विपक्ष देने की नहीं होती है। विरोधी की अगुवाई विपक्षी राजनीतिक पार्टियों को ही करना होगा, क्योंकि लोकतंत्र के पहरेदारी के मामले में उनकी भूमिका न सिर्फ छात्रों से कहीं ज्यादा है बल्कि छात्रों में लोकतांत्रिक समझ व चेतना विकसित करने का दायित्व भी इन्हीं विपक्षी राजनीतिक पार्टियों का है।
अगर विपक्षी पार्टियां अपनी भूमिका नहीं निभायेंगी और उनकी भूमिका निभाने की कोशिश छात्र करेंगे तो यह न सिर्फ राजनीतिक वातावरण के लिए मुश्किलें पैदा करेगा बल्कि यह लोकतंत्र के भविष्य पर भी रोड़े अटका सकता है। जीवित लोकतंत्रों में हर वर्ग की अपनी तयशुदा व सशक्त भूमिका होती है। अगर किसी ने भी अपने हिस्से की भूमिका किसी और को सौंपी तो लोकतंत्र अराजकता के रास्ते में चल पड़ेगा, फिलहाल ऐसा ही होता लग रहा है।