संतोष का अर्थ है: जो कुछ है सुंदर है, यह अनुभूति कि जो कुछ भी है श्रेष्ठतम है, इससे बेहतर संभव नहीं। एक गहन स्वीकार की अनुभूति है संतोष, संपूर्ण अस्तित्व जैसा है उस के प्रति ‘हां’ कहने की अनुभूति है संतोष। साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है।’ साधारणतया मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है, वह गलत है।’ साधारणतया मन इनकार करता है: वह ‘न’ कहने वाला होता है, वह ‘नहीं’ सरलता से कह देता है।
मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है, तब मन की कोई जरुरत नहीं होती। क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन आगे और आगे सोच सकता है, क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है, वह तो एक शुरुआत है। ‘नहीं‘ एक शुरुआत है; ‘हां‘ अंत है। जब तुम ‘हां‘ कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है।
अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, बड़बड़ाने-कुनमुनाने के लिए, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ नहीं रहता- कुछ भी नहीं रहता। जब तुम ‘हां‘ कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है। संतोष कोई सांत्वना नहीं है- यह स्मरण रहे। मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे तसल्ली दे रहे हैं स्वयं को। नहीं, संतोष सांत्वना नहीं है, सांत्वना एक खोटा सिक्का है।
जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते। वस्तुत: भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं है।’
तो तुमने एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर, तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता, मैं धन के लिए नहीं लालायित होता, मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’ लेकिन तुम आकांक्षा करते हो। अन्यथा यह आकांक्षा न करने की बात कहां से आती?