आध्यात्मिक चिंतन

मनुष्य प्राय: कमजोर स्वभाव, दृढ़ संकल्प की कमी के कारण इंद्रियां का दास बन जाता है। इससे उसके आध्यात्मिक व्यक्तित्व में कमी आती है। वासनाएं जिन लोगों पर अपना आधिपत्य जमा लेती हैं उनको इससे आसानी से मुक्ति नहीं मिल पाती है। वे विषयों की बुराइयां जानकर भी निर्बलता अथवा मोह वश उनके फंदे से नहीं निकल पाते। ऐसे लोगों को निरन्तर सत्संगति और आध्यात्मिक चिंतन की आवश्यकता पड़ती है।

इन वासनाओं में प्राय: काम वासना ही सर्व प्रधान होती है और सबसे पहले उसी के निग्रह की चेष्टा की जानीचाहिए। स्त्री की प्रतिमूर्ति अथवा स्मरण मन को क्षुब्ध करता है। काम वासना शक्तिशाली होती है। यह एक कुसुम धानुष साथ लेकर चलती है, जिसमें मोहन, स्तम्भन, उन्मादन, शोषण और तपन रूपी पांच वाण सजे होते हैं। विवेक, विचार, भक्ति और ध्यान इस घोर राग का मूलोच्छेद करते हैं। यदि काम पर विजय प्राप्त हुई तो क्रोध, लोभ, आदि जो उसके शस्त्र हैं, आप ही कुण्डित हो जायेंगे।

राग का प्रथम अस्त्र रमणी है। यदि इसे मन से नष्ट किया गया तो इसके अनुवर्ती और परिजन बड़ी आसानी से जीते जायेंगे। यदि सेनापति मारा गया तो सैनिको को मार डालना आसान हो जायेगा। वासना पर विजय प्राप्त करो। फिर क्रोध को जीत लेना आसन हो जायेगा। केवल क्रोध ही वासना का अनुवर्ती है। सैनिक जैसे ही दुर्ग से बाहर निकलें, उन्हें एक-एक करके मार डालो, अंत में तुम्हारा दुर्ग पर आधिपत्य हो जायेगा। इसी प्रकार प्रत्येक संकल्प को जो मन में उठे एक-एक करके नष्ट कर दो। अंत में तुम्हारा मन पर अधिकार हो जायेगा।

विचार, शांति, ध्यान और क्षमता के द्वारा क्रोध पर विजय प्राप्त करो। जो मनुष्य तुम्हारी हानि करता हो, उसके ऊपर दया करो और उसे क्षमा कर दो। उलाहने को प्रसाद समझो, उसे आभूषण जानों तथा अमृत तुल्य मानो। भर्त्सना को सह लो। सेवा, दया और ब्रह्मभावना के द्वारा विश्व प्रेम का विकास करो। जब क्रोध पर विजय प्राप्त हो जायेगी तो धृष्टता, अहंकार और द्वेष नष्ट हो जायेंगे।

प्रार्थना और भजन से भी क्रोध दूर हो जाता है। संतोष, अभेद, विराग, तथा दान के द्वारा लोभ का शमन करो। अभिलाषाओं को मत बढ़ाओ, तुम्हें कभी निराश नहीं होना पड़ेगा। संतोष के र ाज्य के चार संतरियों की सहायता से तुम ब्रह्म ज्ञान, जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हो। अनुराग के पीछे-पीछे शोक और दुख भी लगे रहते हैं। अनुराग शोक से मिश्रित होता है। सुख के पीछे दुख चलता है। जहां सुख है वहां दुख है। अनुराग के नाम पर मनुष्य दुख का विषमय बीज वपन करता है जिससे शीघ्र की स्नेह के अंकुर निकल आते हैं।

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