योग हमारे आत्म ज्ञान की अभिवृद्धि का माध्यम है। कोई भी ज्ञान, दीक्षा या हला कौशल हासिल करने के लिए उसे कठिन योग, तप से होकर गुजरना पड़ता है। योग एक बड़ा गूढ़ और कठिन विषय माना जाता है पर जैसा गीता में कहा गया है आत्मज्ञान प्राप्त करने के सभी साधन योग से संबंध रखते हैं और इस दृष्टि से प्रत्येक सच्च आत्मज्ञानी योगी भी कहा जायेगा।
इसलिए आत्मज्ञान के इच्छुक को योग मार्ग का परिचय होना आवश्यक है और उसमें से अपने अनुकूल विधियों से लाभ भी उठाना उचित है। मानवी चेतना सापेक्ष चेतना है। इसकी सापेक्षता को विनष्ट कर देना ही सारे योगों का एक मात्र लक्ष्य है। जब मन की उपाधि का तिरोधान हो जाता है तभी चेतना अपनी परमावस्था को प्राप्त करती है। जहां किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं रहता वरन अस्तित्व का ही अस्ति तत्व रहता है।
सांसारिक मनुष्यों के लिए आत्मोद्धार के अनेक मार्ग बतलाये गये हैं, जैसे जप तप योग तीर्थ दान, परोपकार, यज्ञ आदि। ये सभी कार्य यदि उचित रीति से किये जायें तो मनुष्य को आत्मोन्नति की सीढ़ियों पर चढ़ाने वाले और परमात्मा के निकट पहुंचाने वाले हैं। पर इन सब धर्म कार्यों के लिए सत्संग का होना आवश्यक है। बिना सत्संग के मनुष्य की रुचि इन कार्यों की तरफ चली जाये ऐसा बहुत कम देखने में आता है। अधिकांश मनुष्य किसी न किसी निकटवर्ती या दूदर्शी संत पुरुष के उपदेश की प्रेरणा से ही आत्मोन्नति के मार्ग की तरफ आकर्षित होते हैं।
इसलिए योग वशिष्ट में कहा गया है- या: स्नात: शीत शितिया साधु संगति गंगया, किं तस्य दानै: कि तमोभि: किमध्वरै: योगवा। जो व्यक्ति साधु संगति रूपी शीतल निर्मल गंगा में स्नान करता है उसे फिर किसी तीर्थ, तप, दान और यज्ञ, योग आदि की क्या आवश्यकता है। मनुष्य का सर्वप्रथम कर्तव्य संसार में यही है कि स्वयं को और अपने प्रिय जनों को सत्संगति की तरफ प्रेरित करें।
आप अपनी संतान को सुखी जीवन व्यतीत करने के लिए विद्या, बुद्धि, बल आदि प्राप्त करने का उपदेश देते हो, उसके लिए हर तरह के साधन जुटाते हो, जो कुछ सम्भव होता है प्रत्येक प्रत्यन करते हो। पर इन बातों के साथ तुमने उनको सत्संग की प्रेरणा नहीं दी। उनको नीच वृत्ति वाले लोगों का संग करने दिया तो अन्य समस्त सफलताएं व्यर्थ हो जायेंगी। सत्संग ही वह प्रेरक शक्ति है जो अन्य प्रकार की शक्तियों को उपयोगी और हितकारी मार्ग पर चलाती है।
मनुष्य को जो लाभ योग से प्राप्त होता है उसका मूल आधार मानसिक शक्तियों का विकास और नियंत्रण ही होता है। अतएव जो मनुष्य योग को बहुत बड़ी चीज समझकर उससे घबराते हों उनके लिये मानसिक शक्तियों के विकास पर ध्यान देना ही सर्वोत्तम है। मनुष्य की मानसिक शक्तियां बिखरी हुई रहती हैं।