भारत का सौभाग्य है कि उसके नागरिक स्वतंत्र हैं और देश स्वयं अपने भाग्य का विधाता है, लेकिन यह स्थिति हमें अचानक प्राप्त नहीं हुई। इसके लिए अनेक महापुरुषों को दीर्घकाल तक आजादी की अलख जगाए रखना पड़ा और अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। सन 1857 की क्रांति से लेकर 15 अगस्त, 1947 को स्वराज्य की उपलब्धि तक का इतिहास त्याग और बलिदान का रहा है।
भारतीय समाज और राष्ट्र के जीवन में नवीन प्राणों का संचार करने के लिए क्रांतिवीरों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। इन विभुतियों ने देश की आत्मा को चैतन्यता से भर दिया और ऐसी लोकशक्ति का उदय किया कि देश के कोटि-कोटि नर-नारियों ने अपने प्राणों की बाजी लगा कर बरतानिया सत्ता को भारतीय भूमि से उखाड़ फेंका। इन्हीं महान व्यक्तित्वों में शुमार विलक्षण प्रतिभा के धनी स्वामी आचार्य नरेंद्र देव जी भी थे, जिन्होंने अपनी अटूट देशभक्ति से देश व समाज की सेवा की।
आचार्य जी महान देशभक्त, उच्च कोटि के शिक्षक के साथ-साथ समाज के अंतिम व्यक्ति की आवाज भी थे। 1899 में जब आचार्य जी 10 वर्ष के थे तब अपने पिता के साथ लखनऊ के कांग्रेस अधिवेशन में आये और लोकमान्य तिलक, रमेशचंद्र दत्त तथा जस्टिस रानाडे के विचारों से बहुत प्रभावित हुए। वे कम उम्र में ही गरम दल के प्रमुख समाचार पत्र विशेष रुप से ‘वंदे मारतम्’ और ‘आर्य’ पढ़ने लगे और शीघ्र ही उनमें राष्ट्रवाद की भावना कुलांचे मारने लगी।
वीर सावरकर की पुस्तक ‘वॉर आॅफ इंडियन इंडिपेंडेंस’ और लाला हरदयाल की पुस्तक ‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ से वे विशेष रुप से प्रभावित हुए। वह गरम दल का संगठन खड़ा करने के लिए इंग्लैंड जाना चाहते थे लेकिन माता की जिद् के कारण नहीं जा सके। चूंकि उनकी कर्मभूमि फैजाबाद थी लिहाजा वे यहीं अपनी सक्रियता बढ़ाते हुए वकालत के साथ-साथ राजनीतिक क्रियाकलापों में भाग लेने लगे।
असहयोग आंदोलन शुरु होने के साथ ही पंडित नेहरु और शिव प्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर काशी विद्यापीठ आ गए। उन्होंने डा. भगवान दास जी की अध्यक्षता में काम करना शुरू किया और 1926 में अध्यक्ष बने। विद्यापीठ के अध्यापकों और विद्यार्थियों से आचार्य जी का बड़ा लगाव रहा और यहां के विद्यार्थियों ने स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र राष्ट्रीय शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
प्रयाग में रहते हुए उनके विचार और भी अधिक पुष्ट हुए। उन दिनों हिंदू र्बोडिंग हाउस उग्र विचारों का केंद्र था और वे वहां गरम दल के विचारों के हो गए। सच कहें तो आचार्य ने 1906 में जो उग्र विचारधारा अपनायी, जीवन के अंत तक उस पर दृढ़ रहे। 1916 में जब कांग्रेस के दोनों धड़ों में मेल हुआ तो वे कांग्रेस में आ गए। आचार्य जी 1916 से लेकर 1948 आल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य और जवाहर लाल नेहरु की र्वकिंग कमेटी के सदस्य थे।
खराब स्वास्थ्य के बावजूद भी आचार्य ने 1930 के नमक सत्याग्रह, 1932 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया। यही नहीं 8 अगस्त, 1942 को जब गांधी जी ने अंग्रेजों भारत का नारा दिया तो वे मुंबई में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ्तार हो गए। वे 1942-45 तक पं.नेहरु के साथ अहमद नगर के किले में बंद रहे। आचार्य कभी भी क्रांतिकारी दल के सदस्य नहीं रहे, लेकिन क्रांतिकारियों से घनिष्ठ संबंध था। वे समय-समय पर उनकी सहायता भी करते थे।