इस साल सुप्रीम कोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण निर्णय 9 नवम्बर को अयोध्या भूमि विवाद के संदर्भ में आया, जिसके तहत उसने अपने 1045 पृष्ठों के फैसले में विवादित स्थल राम मंदिर निर्माण के लिए दिया और अयोध्या में ही किसी प्रमुख जगह पर मस्जिद निर्माण के लिए पांच एकड़ भूमि देने को कहा, लेकिन कुछ पक्षकारों व अन्यों को यह ‘समाधान उचित नहीं लगा, इसलिए सुप्रीम कोर्ट में 18 समीक्षा याचिकाएं दायर की गईं, जिन्हें 12 दिसम्बर को पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने यह कहते हुए खारिज कर दिया, हमने बहुत ध्यानपूर्वक सभी समीक्षा याचिकाओं व संलग्न दस्तावेजों का अध्ययन किया।
हमें कोई भी ऐसा आधार इनमें नहीं मिला कि उन्हें ओपन कोर्ट में सुना जाये। अत: सभी समीक्षा याचिकाओं को खारिज किया जाता है। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि 9 नवम्बर का निर्णय यथावत बना रहेगा। इतना ही महत्वपूर्ण निर्णय इसके चार दिन बाद यानी 13 नवम्बर 2019 को आया। सुप्रीम कोर्ट का सूचना का अधिकार से संबंधित निर्णय ऐसे समय आया, जब आरटीआई एक्ट और आरटीआई अपीलों को देखने वाले सूचना आयुक्तों को कमजोर कर दिया गया है कि केंद्र सरकार ने आयुक्तों की सेवा अवधि व सेवा शर्तों को तय करने का अधिकार अपने अधीन कर लिया है। सुप्रीम कोर्ट ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) को सार्वजनिक प्राधिकरण मानते हुए उन्हें आरटीआई एक्ट के दायरे में लाकर पारदर्शिता व जवाबदेही को कुछ बल प्रदान करने का प्रयास किया। इस दृष्टि से देखा जाये तो न्यायपालिका ने आरटीआई एक्ट की सुस्पष्ट विशेषता को पुन: स्थापित करने की कोशिश की है जबकि एग्जीक्यूटिव उसके महत्व को कम करने में लगा है।
सुप्रीम कोर्ट ने सीजेआई व हाईकोर्ट्स के मुख्य न्यायाधीशों के कार्यालयों को ‘सार्वजनिक प्राधिकरण तो घोषित कर दिया, जिससे आरटीआई एक्ट के तहत उनसे सूचना ली जा सकती है, लेकिन न्यायाधीशों व न्यायपालिका को ‘सुरक्षित रखने के लिए यह अनुमति जबरदस्त कै विएट्स (विराम-पत्रों या शर्तों) के साथ दी गई है, जैसे ‘न्यायिक स्वतंत्रता, निजता व वास्तविक जनहित। इसका अर्थ यह है कि सूचना इसी शर्त पर मिलेगी कि वह न्यायिक स्वतंत्रता व निजता को बाधित न करती हो और वह वास्तविक जनहित में मांगी जा रही हो। अब इस शर्त की व्याख्या सूचना देने के लिए भी की जा सकती है और न देने के लिए भी। खंडपीठ ने कहा, जब जनहित की मांग सूचना को सार्वजनिक करने की होती है तो स्वविवेक के प्रश्न पर निर्णय लेते हुए न्यायिक स्वतंत्रता को संज्ञान में रखना चाहिए। 13 फरवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने एक चिंताजनक निर्णय दिया कि 11.8 लाख वनवासियों को उनकी परम्परागत रिहायशी जगहों से निकाला जाये।
गौरतलब है कि 16 राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट में स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करते हुए वन में रहने वाले आदिवासियों (एफडीएसटी) और अन्य परम्परागत वनवासियों (ओटीएफडी) के वन भूमि पर दावे को खारिज कर दिया था, जिस पर न्यायाधीश अरुण मिश्रा के नेतृत्व वाली खंडपीठ ने आदेश दिया था कि अगर यह रिपोर्ट अंतिम है तो राज्य वनवासियों को जंगल से निकालने के अपने निर्णय पर अमल कर सकते हैं, लेकिन जब कांग्रेस ने अपनी पार्टी द्वारा शासित राज्यों (पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश व छतीसगढ़) के मुख्यमंत्रियों से कहा कि इस आदेश के विरुद्घ उच्चतम न्यायालय में ही अपील करें, तो यह ज्वलंत राजनीतिक मुद्दा बन गया और केंद्र सरकार को भी मजबूरन 27 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में आग्रह किया कि इस आदेश पर तुरंत रोक लगायी जाये। सुप्रीम कोर्ट का वी. सुरेन्द्र मोहन बनाम तमिलनाडु राज्य में भी निर्णय दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि योग्य व शिक्षित होने के बावजूद अगर प्रार्थी की सुनने या देखने की क्षमता में 50 प्रतिशत से अधिक का अभाव है तो वह न्यायाधीश नहीं बन सकता।
गत वर्षों की तरह इस साल भी सुप्रीम कोर्ट ने अन्य अदालतों के ‘गलत निर्णयों को सुधारने का सिलसिला जारी रखा। मसलन, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 3 अप्रैल 2018 को बलात्कार के आरोपी को इस आधार पर जमानत दे दी थी कि मेडिकल साक्ष्य से यह ज्ञात हुआ कि पीड़ित महिला ‘सेक्स की आदी थी, लेकिन यौन हिंसा पर अपने कड़े रु ख को बरकरार रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 29 नवम्बर 2019 को संबंधित आरोपी की जमानत रद्द कर दी और स्पष्ट किया कि महिला का ‘सेक्स की आदी होना जमानत का आधार नहीं हो सकता। हालांकि यौन हिंसा पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना कड़ा रु ख बरकरार रखा, लेकिन यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास किया कि जन-इच्छा के दबाव में अदालत को बाई-पास करके ‘इंसाफ न किया जाये।इसलिए 12 दिसम्बर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने रिटायर्ड न्यायाधीश वी.एस. सिरपुरकर के नेतृत्व में हैदराबाद ‘मुठभेड़ का सच जानने के लिए तीन-सदस्यों का जांच आयोग नियुक्त किया जो अपनी रिपोर्ट छह माह में देगा। एक पशु-चिकित्सक के रेप-मर्डर के चार आरोपियों को तेलंगाना पुलिस ने ‘मुठभेड़ में मार गिराया था।
19 सितम्बर 2019 को केरल हाईकोर्ट का निर्णय भी ऐतिहासिक व महत्वपूर्ण रहा, जिसके तहत इंटरनेट एक्सेस बुनियादी अधिकार बन जाता है। एक न्यायाधीश की खंडपीठ ने कहा कि इंटरनेट एक्सेस को सीमित करने से लोगों को उनके जीवन, स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व प्राइवेसी के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। श्री नारायण कलेज, चेलंनुर, जिला कोझिकोड (केरल) के प्रबंधकों ने कलेज के गर्ल्स हस्टल में मोबाइल फोन के प्रयोग पर शाम 6 बजे से रात 10 तक प्रतिबंध लगा दिया था। जिसके विरोध में एक 18-वर्षीय छात्रा फहीमा शिरीन ने हाईकोर्ट में दस्तक दी और इंटरनेट एक्सेस बुनियादी अधिकार बन गया।