आवश्यकता है भ्रांतियों से निकलने और यथार्थ को अपनाने की। इस दिशा में मान्यताओं को अग्रगामी बनाते हुए सोचना होगा कि जीवन साधना ही आध्यात्मिक स्वस्थता और बलिष्ठता है। इसी के बदले प्रत्यक्ष जीवन में बिना मरण की प्रतीक्षा किये स्वर्ग, मुक्ति और तृप्ति का रसास्वादन करते रहा जा सकता है। उन लाभों को उपलब्ध किया जा सकता है जिनका उल्लेख आध्यात्म विद्या की महत्ता बताते हुए शस्त्रकारों ने विस्तारपूर्वक किया है।
सच्चे संत भक्तों का इतिहास भी विद्यमान है। खोलने पर प्रतीत होता है कि पूजा पाठ भले ही उनका न्यूनाधिक रहा हो पर उन्होंने जीवन साधना के क्षेत्र में परिपूर्ण जागरुकता बरती। इसमें व्यतिक्रम नहीं होने दिया। न आदर्श की अवज्ञा की और न उपेक्षा बरती। भाव संवेदनाओं से श्रद्धा-विचार, बुद्धि में प्रज्ञा और लोक व्यवहार में शालीन सद्भावना की निष्ठा अपनाकर कोई भी सच्चे अर्थों में जीवन देवता का सच्चा साधक बन सकता है। उसका उपहार वरदान भी उसे हाथों हाथ मिलता चलता है।
ऋषियों, मनीषियों, संत, सुधारकों और वातावरण में ऊर्जा आभा भर देने वाले महामानवों की अनेकानेक साक्षियां विश्व इतिहास से भरी पड़ी हैं। इनमें से प्रत्येक को हर कसौटी पर जांच परख कर देखाजा सकता है कि उनमें से हर एक को अपना व्यक्तित्व उत्कृष्टता की कसौटी पर खरा सिद्ध करना पड़ा है। उससे कम में किसी को भी न आत्मा की प्राप्ति हो सकी न परमात्मा की। न ऐसों का लोक बना और न परलोक। पूजा को श्रृंगार माना जाता रहा है।
स्वास्थ्य वास्तविक सुन्दरता है। ऊपर से वस्त्राभूषणों से, प्रसाधन सामग्रियों से उसे सजाया भी जा सकता है। इसे सोना सुगंध का मिश्रण बन पड़ा माना जा सकता है। जीवन साधन समग्री स्वस्थ्ता है। उसके ऊपर पूजा-पाठ का श्रृंगार भी सजाया जाये तो शोभा और भी अधिक बढ़ेगी किन्तु यह नहीं माना जाना चाहिए कि मात्र श्रृंगार साधनों के सहारे सुन्दरता बढ़ती है। किसी जीर्ण जर्जर रुग्ण या मृत शरीर पर श्रृंगार सामग्री चढ़ा ली जाये तो भी कुछ प्रयोजन कहां सधता है? उससे तो उपहास ही होगा। इसके विपरीत यदि कोई हष्ट पुष्ट पहलवान मात्र लंगोट पहन कर अखाड़े में उतरता है तो भी उसकी शोभा बन जाती है।
ठीक इसी प्रकार जीवन को सुसंस्कृत बना लेने वालो यदि पूजा अर्चना के लिए कम समय निकाल पाते हैं तो भी काम चल जाता है। आध्यात्म विज्ञान तत्वदर्शी को अपने दृष्टिकोण में मौलिक परिवर्तन आरम्भ करना पड़ता है। उसे सोचना होता है कि मनुष्य जीवन की बहुमूल्य धरोहर का इस प्रकार उपयोग करना है जिससे शरीर निर्वाह और लोक व्यवहार भी चलता रहे पर साथ ही आत्मिक अपूर्णता को पूरी करने का चरम लक्ष्य भी प्राप्त हो सके।