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शैल उत्सव : प्राचीन कलाओं में से एक है मूर्तिकला

अखिल भारतीय मूर्तिकला शिविर का तीसरा दिन

लखनऊ। मूर्तिकला प्राचीन कलाओं में से एक है। प्रागैतिहासिक काल से ही मूर्तिकला मानव अभिव्यक्ति का एक साधन रही है। मिस्र और मेसोपोटामिया की प्राचीन संस्कृतियों ने मूर्तिकला की बहुत बड़ी संख्या में उत्कृष्ट कृतियाँ बनाईं, जो अक्सर एकाकी होती थीं, जिनका सौंदर्य संबंधी विचारों से परे अनुष्ठानिक महत्व था। प्राचीन ग्रीस में इस्तेमाल की जाने वाली सबसे लोकप्रिय मूर्तिकला सामग्री में शामिल थे संगमरमर और अन्य चूना पत्थर, कांस्य, टेराकोटा और लकड़ी। काफी समय से मूर्तिकला में काम होते आ रहे हैं। और आज इस विधा में काफी प्रयोग किये जा रहे हैं। समकालीन मूर्तिकार सिर्फ पत्थर और लकड़ी ही नहीं बल्कि आज के आधुनिक समय में माध्यम, तकनीक का प्रयोग करते हुए बड़ा काम कर रहे हैं। इसी प्रकार के नए प्रयोग करने वाले देश के पांच प्रदेशों से दस समकालीन मूर्तिकार इनदिनों लखनऊ में एक शिविर में एक साथ उपस्थित हैं और काम कर रहे हैं। लखनऊ विकास प्राधिकरण के सहयोग से नगर के वास्तुकला एवं योजना संकाय, टैगोर मार्ग परिसर में चल रही आठ दिवसीय अखिल भारतीय मूर्तिकला शिविर के तीसरे दिन भी शिविर में बन रही कलाकृतियों को देखने के लिए नगर के वास्तुविद, कलाकार, कला के छात्र और कलाप्रेमीयों का तांता लगा रहा। कला प्रेमियों छात्रों को अपने बीच देखकर सभी कलाकार बहुत उत्साहित दिखे साथ लोगों ने कलाकारों से उनके काम,तकनीक के बारे में जानकारी हासिल करते हुए दिखे। शिविर के कोआॅर्डिनेटर भूपेंद्र अस्थाना ने बताया कि शिविर में आए सभी मूर्तिकार दिनोंरात काम कर रहे हैं।
शिविर में आये कलाकारों के साथ बातचीत करते हुए डॉक्यूमेंटेशन टीम रत्नप्रिया और हर्षित सिंह से नई दिल्ली से आए मूर्तिकार राजेश कुमार ने बताया कि मेरी रचनात्मक यात्रा मुक्ति और तरलता के लोकाचार द्वारा निर्देशित है। जबकि मेरी मूर्तियां बायोमॉर्फिक रूपों की झलक रखती हैं, वे पारंपरिक परंपराओं से हटकर एक अलग दिशा तय करती हैं। यह प्रस्थान कठोर परिभाषाओं या सीमाओं से मुक्त होकर, रूप और अभिव्यक्ति की मुक्त-प्रवाह वाली खोज की अनुमति देता है। भावनाओं के असीम दायरे को अपनी प्रेरणा के रूप में अपनाते हुए, मैं सहज अनुग्रह के साथ मूर्तिकला करता हूं, जिससे मेरे हाथों को मानव अनुभव के सार को कला के मूर्त कार्यों में प्रसारित करने की अनुमति मिलती है। परिणाम एक वक्ररेखीय सौंदर्य है जो दर्शकों को गहराई से प्रभावित करता है और सामूहिक चेतना पर एक अमिट छाप छोड़ता है। राजेश मूलत: नई दिल्ली से हैं। उन्होंने 2012 में जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से मूर्तिकला में स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। वर्तमान में ग्रेटर नोएडा में कला धाम स्टूडियो में कार्यरत हूं। उनका प्रमुख विषय रिश्ता है, काला संगमरमर उनका पसंदीदा माध्यम है। कभी-कभी वह संगमरमर को स्टेनलेस स्टील के साथ मिलाता है। लकड़ी भी उनके पसंदीदा माध्यमों में से एक है, लेकिन इस सामग्री की संभावना के कारण वह ज्यादातर संगमरमर का काम करते हैं। अपने विषय में उन्हें लगता है कि प्रकृति हमेशा एक जैसी होती है, केवल रूप बदलता है।अपने काम में इन्होंने प्रकृति और मानव के बीच के संबंध को दिखाया है इनके अनुसार प्रकृति ही सब कुछ है ,सारा संसार मिट्टी से बना है और सब कुछ एक दिन मिट्टी ही हो जाना है। शुरू में इन्होने खङ्मु की थी लेकिन फिर इनको ये महसूस हुआ कि जॉब करना इनके लिए संभव नहीं है तो फिर इन्होंने खुद को पूरी तरह से इस मूर्तिकला के कार्य में लग दिया। ललित कला अकादमी गढ़ी स्टुडियो में इन्होंने काफी काम किया है। ठऊटर और कला परिषद के संयुक्त तत्वावधान एक बड़ा कैम्प दिल्ली में हुआ था जहां इन्होंने एक बुल बनाया था जो इन समय दिल्ली में ही स्थापित है। वहीं एक दूसरे मूर्तिकार नई दिल्ली से ही आए शैलेश मोहन ओझा ने अपने काम के बारे में बताया कि अपने अभ्यास में, मैं प्रेम, शांति और मानवीय अनुभव की जटिलताओं को व्यक्त करने के लिए लकड़ी, पत्थर, कांस्य, स्टील और लोहे सहित माध्यमों के विविध पैलेट का उपयोग करके सामग्री और अर्थ के प्रतिच्छेदन का पता लगाता हूं। प्रत्येक सामग्री अपनी कहानी और ऊर्जा का प्रतीक है, जिससे मुझे ऐसे काम बनाने की इजाजत मिलती है जो कई स्तरों पर गूंजते हैं। मेरी कला बौद्ध विचारधारा से प्रेरणा लेती है, जो आत्म-प्राप्ति की यात्रा और अज्ञात वास्तविकताओं को उजागर करने की खोज पर जोर देती है। अपनी मूर्तियों और स्थापनाओं के माध्यम से, मैं दर्शकों को अपने स्वयं के अनुभवों और हमारे जीवन के अंतसंर्बंधों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता हूं। प्रत्येक टुकड़ा अस्तित्व की नाजुकता और करुणा की स्थायी शक्ति पर ध्यान के रूप में कार्य करता है।

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