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आत्मबल सबसे बड़ी ताकत

आत्मबल मनुष्य का सबसे बड़ा संबल है। आत्मसंतोष के लिए ही लोग दिनरात श्रम करते और भले बुरे कामों में हाथ डालते हैं। सम्पन्नता, बद्धिमत्ता, प्रतिभा कितनी ही अधिक अर्जित करने पर उनका लाभ शरीर भर को मिलता है। आत्मा की क्षुधा पिपास आंतरिक उत्कृष्टता एवं उदार सेवा, साधना से ही तृप्त होती है। सच्चे अध्यात्मवादी को इन्हीं दो प्रयत्नों में सर्वतोभावेन निरत होना पड़ता है फलत: अजस्र मात्रा में आत्मसंतोष मिलता है। जड़े मजबूत एवं गहरी होने से ही वृक्ष सुरविकसित होता है।

आत्मा के समर्थन एवं आशीर्वाद से ही व्यक्तित्व की महानता उभरती है। फलत: साहस, उत्साह और संकल्प की कमी नहीं रहती। आत्मसंतोष और आत्मबल अन्योन्याश्रित हैं। एक होगा वहां दूसरा भी रहेगा। अन्तर्द्वंद्व ही आत्मबल को नष्ट करते हैं। जहां आत्मा और परमात्मा की व्यक्ति और आदर्श की एकता है, वहां हर घड़ी प्रसन्नता बनी रहेगी और उल्लास भरी उमंग उठती रहेगी। आत्मबल संसार का सबसे बड़ा बल है।

जहां-जहां होता है वहां अन्य बल भीतर से उपजते बढ़ते भी हैं और बाहर से खिंचते भी चले आते हैं। आत्म सम्पदा के धनी लोगों को भौतिक सम्पन्नता की कमी नहीं रही। जहां क्षुद्रता से घिरे लोग कुकर्म करते और हर स्तर अपनने पर भी दरिद्र उदिग्न बने रहते हैं वहां आत्मबल के धनी बुद्ध और गांधी की तरह हर स्तर की विभूतियों से घिरे रहते हैं। यह बात दूसरी है कि वे क्षुद्रजनों की तरह अपना पराया सब कुछ उदरस्थ नहीं करते रहते वरन उसे सत्प्रयोजन के निमित्त भगवान के खेत में बोते रहते हैं ताकि अदृश्य स्तर की दिव्य विभूतियों से उनका कोष हजारों गुना बढ़ता रहे।

जिसे खिलाने का मजा आ गया वह खाने में कटौती करता है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर की तरह दूसरों को खिलाता रहता है। शबरी इसी आधार पर कृतकृत्य हुई थी। गोपियों ने यही नीति प्अनाकर भगवान को ललचाया और आंगन में नचाया था। क्षुद्रजन खाना ही खाना जानते हैं। जबकि महान खिलाने का आनन्द लूटते और आत्मसंतोष आत्मबल के धनी बनते हैं। आध्यात्म क्षेत्र की दूसरी सिद्धि है- लोक सम्मान, जनसहयोग। हर किसी की इच्छा लोक सम्मान पाने की होती है।

सजधज ठाट-बाट में ढेरों समय और धन इसीलिए लगता है कि लोगों की आंखों में चकाचौंध उत्पन्न हो, वरिष्ठता स्वीकारें, प्रभावित हों और वाह-वाह कहने लगें। इस ललक की पूर्ति के लिए मनुष्य निरन्तर लालायित रहता है। स्टेटस बनाना स्टैण्डर्ड मेन्टेन करना इसी को कहते हैं। इस विडम्बना में मनुष्य का अधिक चिंतन, श्रम एवं उपार्जन खप जाता है फिर भी पल्ले कुछ नहीं पड़ता, वरन उल्टे ईर्ष्या का शिकार बनता है। अपव्यय से तंगी और उसकी पूर्ति के लिए अनीति अपनाने का एक कुचर्क अलग ही चल पड़ता है।

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