नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्ईय संविधान पीठ ने गुरूवार को एकमत से 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध अपराध था। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने अप्राकृतिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे में रखने वाली धारा 377 के हिस्से को तर्कहीन, सरासर मनमाना और बचाव नहीं किए जाने वाला करार दिया। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा शामिल हैं।
Celebrations in Chennai after Supreme Court in a unanimous decision decriminalises #Section377 and legalises homosexuality pic.twitter.com/AqKiGlnO4N
— ANI (@ANI) September 6, 2018
पीठ ने चार अलग अलग परंतु परस्पर सहमति के फैसले सुनाए
संविधान पीठ ने धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त करते हुए इसे संविधान में प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन करने वाला करार दिया। पीठ ने चार अलग अलग परंतु परस्पर सहमति के फैसले सुनाए। इस व्यवस्था में शीर्ष अदालत ने सुरेश कौशल प्रकरण में दी गई अपनी ही व्यवस्था निरस्त कर दी। धारा 377 अप्राकृतिक अपराधो से संबंधित है ओर इसमें कहा गया है कि जो कोई भी स्वैच्छा से प्राकृतिक व्यवस्था के विपरीत किसी पुरूष, महिला या पशु के साथ गुदा मैथुन करता है तो उसे उम्र कैद या फिर एक निश्चित अवधि के लिए कैद जो दस साल तक बढ़ाई जा सकती है, की सजा होगी और उसे जुर्माना भी देना होगा।
मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता दी गई
शीर्ष अदालत ने हालांकि अपनी व्यवस्था में कहा कि धारा 377 में प्रदत्त पशुओं ओर बच्चों से संबंधित अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध की श्रेणी में रखने वाले प्रावधान यथावत रहेंगे। न्यायालय ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 एलजीबीटी के सदस्यों को परेशान करने का हथियार था, जिसके कारण इससे भेदभाव होता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि एलजीबीटी समुदाय को अन्य नागरिकों की तरह समान मानवीय और मौलिक अधिकार हैं। अदालतों को व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि गरिमा के साथ जीने के अधिकार को मौलिक अधिकार के तौर पर मान्यता दी गई है।
अपराध के दायरे से बाहर
यौन रुझान को जैविक स्थिति बताते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि सरकार, मीडिया को उच्चतम न्यायालय के फैसले का व्यापक प्रचार करना चाहिए ताकि एलजीबीटीक्यू समुदाय को भेदभाव का सामना नहीं करना पड़े। संविधान पीठ ने नृत्यांगना नवतेज जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, शेफ ऋतु डालमिया, होटल कारोबारी अमन नाथ और केशव सूरी, व्यावसाई आयशा कपूर और आईआईटी के 20 पूर्व तथा मौजूदा छात्रों की याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया। इन सभी ने दो वयस्कों द्वारा परस्पर सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध के दायरे से बाहर रखने का अनुरोध करते हुए धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी।
धारा 377 के प्रावधान को गैरकानूनी
समलैंगिक यौन संबंधों का मुद्दा पहली बार गैर सरकारी संगठन नाज फाउण्डेशन ने 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में उठाया था। उच्च न्यायालय ने 2009 में अपने फैसले में धारा 377 के प्रावधान को गैरकानूनी करार देते हुए ऐसे रिश्तों को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था। उच्च न्यायालय के इस फैसले को 2013 में उच्चतम न्यायालय ने पलट दिया था। इसके बाद शीर्ष अदालत ने अपने फैसले पर पुनर्विचार के लिए दायर याचिका भी खारिज कर दी थी। हालांकि, शीर्ष अदालत में इस फैसले को लेकर दायर सुधारात्मक याचिकाएं अभी भी लंबित हैं।