जिन देवी देवताओं की या ईश्वर की साधना की जाती है उनकी अपनी एक विशेषता होती है। इन विशेषताओं के कारण ही उनकी साधना की जाती है और साधक को वे अपेक्षित गुण प्राप्त होते हैं जो देवताओं के द्वारा प्रदान किये जाते हैं। जिन देवी-देवताओं की साधना की जाती है वस्तुत: अपनी ही विभूतियां और सहवृत्तियां हैं। विशेषताओं के प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहने के कारण हम दीन रहते हैं। किन्तु जब वे जाग्रत, प्रखर एवं सक्रिय बन जाती हैं, तो अनुभव होता है कि हम ऋद्धि-सिद्धियों से भरे पूरे हैं।
मनुष्य की मूल सत्ता एक जीवन्त कल्पवृक्ष की तरह है। ईश्वर ने उसे बहुत कुछ, सब कुछ देकर इस संसार में भेजा है। समुद्र तल में भरे मणि-मुक्ताओं की तरह, भूतल में दबी रत्न-राशि की तरह मानवी सत्ता में भी असंख्य सम्पदाओं के भंडार भरे पड़े हैं। किन्तु वे सर्वलुभ नहीं हैं। प्रयत्नपूर्वक उन्हें खोजना-खोदना पड़ता है। जो इसके लिए पुरुषार्थ नहीं जुटा पाते, वे खाली हाथ रहते हैं किन्तु जो प्रयत्न करते हैं उनके लिए किसी भी सफलता की कमी नहीं रहती। इसी प्रयत्नशीलता का नाम साधना है।
स्पष्ट है कि अपने आपको सुविस्तृत, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बना लेना ही देव आराधना का एकमात्र उद्देश्य है। अपनी सहवृत्तियों की अलंकारिक भाषा में देव शक्तियां कहा गया है और उनकी विशेषताओं के अनुरूप उनके स्वरूप, वाहन आयुध अलंकार आदि का निर्धारण किया गया है। साधना उपासना के क्रिया-कृत्य में यही रहस्यमय संकेत-संदेश सन्निहित है कि हम अपने व्यक्तित्व को किसी प्रकार समुन्नत करें और जो प्रसुप्त पड़ा है उसे जाग्रत करने के लिए क्या कदम उठायें?
सच्ची सधना वही है जिसमें देवता की मनुहार करने के माध्यम से आत्म निर्माण की दूरगामी योजना तैयार की जाती है और सुव्यवस्था बनायी जाती है। मानवी व्यक्तित्व में सन्निहित संभावनाओं का कोई पारावार नहीं। ईश्वर का ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते उसे अपने पिता से सभी विभूतियां उत्तराधिकार में मिली हैं। व्यवस्था नियंत्रण इतना ही है कि जब रत्न राशि की उपयोगिता आवश्यकता समझ में आ जाये तभी वे मिल सकें।
पात्रता के अनुरूप अनुदान मिलने की सुव्यवस्था अनादिकाल से चली आ रही है। इसी शिक्षा में खरे उतरने पर लोग एक से एक बढ़कर अनुदान प्राप्त करते रहे हैं। साधना के फलस्वरूप सिद्धि मिलने का सिद्धान्त अकाट्य है। देवी-देवताओं को माध्यम बनाकर वस्तुत: हम अपने ही व्यक्तित्व की साधना करते हैं। अनगढ़ आदतों की बेतुकी इच्छाओं और अस्त व्यस्त विचारणाओं को सभ्यता एवं संस्कृति के शिकंजे में कस कर ही मनुष्य ने प्रगतिशीलता का वरदान पाया है। इसलिए हमेशा कसौटी पर कसनी चाहिए।