सस्पेंस-थ्रिलर से भरपूर है नीरज पांडे की ‘सिकंदर का मुकद्दर’

इस कहानी की शुरूआत रोमांचक अंदाज में होती है
लखनऊ। सिनेमा की दुनिया में हाइस्ट यानी चोरी-डकैती पर बुनी चोर-पुलिस वाली कहानी फिल्मकारों के पसंदीदा विषयों में रही है। इस विषय पर ‘द इटैलियन जॉब’, ‘ओशन सीरीज’, ‘नाऊ यू सी मी’ से लेकर आइकॉनिक ‘मनी हाइस्ट’ जैसी विदेशी फिल्में और वेब सीरीज बन चुकी हैं। देश में भी ‘ज्वेल थीफ’, ‘आंखें’ (2002) और ‘धूम फ्रेंचाइजी’ जैसी यादगार फिल्में बनी हैं। अब इसी विषय पर डायरेक्टर नीरज पांडे अपनी नई फिल्म ‘सिकंदर का मुकद्दर’ लेकर आए हैं। नीरज खुद इससे पहले पुलिस को चकमा देकर रुपये उड़ा लेने वालों की टीम पर फिल्म ‘स्पेशल 26’ बना चुके हैं। कहानी यहां भी हीरों की चोरी का है। बहुमूल्य रत्नों की एक प्रदर्शनी के दौरान पुलिस को डकैती की सूचना मिलती है, जिससे अफरा-तरफी मच जाती है। इसी बीच 50-60 करोड़ के 5 कीमती हीरे गायब हो जाते हैं। केस का जिम्मा आईओ हरविंदर सिंह (जिमी शेरगिल) को मिलता है, जिनका ट्रैक रिकॉर्ड 100 पर्सेंट है। यहां भी वह अपनी मूल वृति यानी इंस्टिंक्ट के आधार पर चंद मिनटों में प्रदर्शनी में मौजूद तीन लोगों- मंगेश देसाई (राजीव मेहता), कामिनी सिंह (तमन्ना भाटिया) और इंजीनियर सिकंदर शर्मा (अविनाश तिवारी) को आरोपी घोषित कर देते हैं। हरविंदर को पक्का यकीन है कि चोरी इन्हीं में से किसी ने की है, लेकिन जांच में वह यह बात साबित नहीं कर पाते। केस खत्म होने के बाद भी वह 15 साल तक सिकंदर के पीछे पड़े हुए है। वह उसे बेरोजगार बना देते हैं, उसके सिर से छत छीन लेते हैं, उसे दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर कर देते हैं। यहां तक कि इस धुन में खुद हरविंदर अपनी वर्दी और पत्नी से हाथ धो बैठते हैं। लेकिन बावजूद इसके चोरी हुए हीरे नहीं ढूंढ पाते हैं। आखिर में हरविंदर यह मान लेते हैं कि उनका इंस्टिंक्ट गलत था। लेकिन क्या वाकई हरविंदर गलत थे? आखिर हीरे गए कहां? इस चोरी का मास्टरमाइंड कौन था? यह राज फिल्म देखकर ही पता चलेगा। नीरज पांडे और विपुल के रावल की लिखी इस कहानी की शुरूआत रोमांचक अंदाज में होती है, जो तेज रफ्तार में आगे बढ़ती है। लेकिन जल्द ही 15 साल का सफर तय करने में आगे-पीछे होने लगती है। इसका असर यह होता है कि रोमांच कमजोर पड़ जाता है। कहानी में ट्विस्ट एंड टर्न भी कई हैं, जो बांधे रखते हैं। लेकिन ये खुलासे जिस तरह की स्टोरी टेलिंग के साथ हैं, वो चौंकाते नहीं हैं। उनका प्रभाव फीका रह जाता है। स्क्रीनप्ले में खामियां हैं, जो कई जगहों पर झलकती हैं। मसलन, जिमी शेरगिल के किरदार की बेचैनी उसे किस तरह बदलती है? उसकी नौकरी और शादीशुदा जिंदगी पर कैसे असर डालती है? ये बातें आखरि तक पता नहीं चलतीं। कई सवाल अनसुलझे रह जाते हैं। ऐसे में ढाई घंटे की लंबाई भी अखरती है।हां, ऐक्टिंग के मामले में और ऐसे पुलिसिया रोल में जिमी शेरगिल का कोई सानी नहीं है। वह एकदम नेचुरल लगते हैं। अविनाश तिवारी भी कहीं उन्नीस नहीं पड़ते। वह जिमी के साथ मजबूती से डटे रहते हैं। तमन्ना भाटिया भी अपने किरदार के साथ न्याय करती हैं। हालांकि, उनके किरदार में गहराई की कमी खलती है। दूसरी ओर, दिव्या दत्ता, जोया अफरोज, रिद्धिमा पंडित के किरदार ना के बराबर है। तकनीकी पक्ष की बात करें, तो अरविंद सिंह का कैमरा और गोहुल एचआर के साउंड इफेक्ट्स सस्पेंस को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। सस्पेंस-थ्रिलर के शौकीन हैं तो एक बार यह फिल्म देख सकते हैं।

ऐक्टर: जिमी शेरगिल, अविनाश तिवारी, तमन्ना भाटिया, जोया अफरोज, रिद्धिमा तिवारी, राजीव मेहता
डायरेक्टर : नीरज पांडे
रेटिंग -3/5

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