वेदों का स्वरूप

वेद पौरुषेय (मानवनिर्मित) है या अपौरुषेय (ईश्वरप्रणीत)। वेद का स्वरूप क्या है? इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का स्पष्ट उत्तर ऋग्वेद में इस प्रकार है- वेद। परमेश्वर के मुख से निकला हुआ परावाक है। वह अनादि एवं नित्य कहा गया है। वह अपौरुषेय ही है। मनुस्मृति के अनुसार, अति प्राचीन काल के ऋषियों ने उत्कट तपस्या द्वारा अपने तप:पूत हृदय में परावाक वेदवाड्मय का साक्षात्कार किया था, अत: वे मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाये- ऋषयो मन्त्र द्रष्टार:।

बृहदारण्यकोपनिषद में उल्लेख है- अस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदो…अथर्वास: अर्थात उन महान परमेश्वर के द्वारा (सृष्टि- प्राकट्य होने के साथ ही)-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद नि:श्वास की तरह सहज ही बाहर प्रकट हुए। तात्पर्य यह है कि परमात्मा का नि:श्वास ही वेद है। इसके विषय में वेद के महापण्डित सायणाचार्य अपने वेद भाष्य में लिखते हैं- यस्य नि:श्वसितं वेदा यो वेदेभ्योरखिलं जगत। निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थं महेश्वरम।

भारतीय दर्शन शास्त्र के मतानुसार शब्द को नित्य कहा गया है। वेद ने शब्द को नित्य माना है, अत: वेद अपौरुषेय है यह निश्चित होता है। निरूक्तकार कहते हैं कि नियतानुपूर्व्या नियतवाचो युक्तय:। अर्थात शब्द नित्य है, उसका अनुक्रम नित्य है और उसकी उच्चारण-पद्धति भी नित्य है, इसीलिये वेद के अर्थ नित्य हैं। ऐसी वेदवाणी का निर्माण स्वयं परमेश्वर ने ही किया है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म-ज्ञान को परावाक कहते हैं। उसे ही वेद कहा गया है।

इस वेदवाणी का साक्षात्कार महा तपस्वी ऋषियों को होने से इसे पश्यन्तीवाक। कहते हैं। ज्ञानस्वरूप वेद का आविष्कार शब्दमय है। इस वाणी का स्थूल स्वरूप ही मध्यमावाक है। वेदवाणी के ये तीनों स्वरूप अत्यन्त रहस्यमय हैं। चौथी। वैखरीवाक। ही सामान्य लोगों की बोलचाल की है। शतपथ ब्राह्मण तथा माण्डूक्योपनिषद में कहा गया है कि वेद मन्त्र के प्रत्येक पद में, शब्द के प्रत्येक अक्षर में एक प्रकार का अद्भुत सामर्थ्य भरा हुआ है। इस प्रकार की वेद वाणी स्वयं परमेश्वर द्वारा ही निर्मित है, यह नि:शंक है।

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