ममता कुलकर्णी, सनातन धर्म और धार्मिक पदवी की गरिमा

भारतीय समाज में धर्म और आध्यात्मिकता का हमेशा से गहरा प्रभाव रहा है। समय के साथ संन्यास, तपस्या और धार्मिक पदवी जैसे विषयों पर चर्चा बढ़ती गई। इस संदर्भ में पूर्व अभिनेत्री ममता कुलकर्णी और शराब कारोबारी से महामंडलेश्वर बने सचिन दत्ता उर्फ सच्चिदानंद की कहानियां एक ऐसा परिदृश्य पेश करती हैं, जो सनातन धर्म की गरिमा के विपरीत हैं।

लोकेश त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार

ममता कुलकर्णी का नाम 90 के दशक की प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेत्री के रूप में जाना जाता है। उनकी ग्लैमरस छवि ने भारतीय सिनेमा को कई हिट फिल्में दीं। हालांकि, 2000 के दशक के बाद ममता अचानक से गायब हो गईं। बाद में खबरें आईं कि उन्होंने भौतिक दुनिया को त्याग कर अध्यात्म का रास्ता अपना लिया। 2025 में ममता को किन्नर अखाड़े की ओर से महामंडलेश्वर घोषित किया गया। उनके नये नाम, ‘श्रीयामाई ममतानंद गिरि’ के साथ एक नई पहचान सामने आई लेकिन सवाल उठता है कि क्या महज भगवा वस्त्र पहनने और अखाड़े के समर्थन से कोई व्यक्ति इस पदवी का अधिकारी बन सकता है? ममता के जीवन में कई विवाद भी जुड़े रहे, जिनमें ड्रग माफिया विक्की गोस्वामी से जुड़े संबंध और आपराधिक आरोप प्रमुख हैं। 2015 में उत्तर प्रदेश के नोएडा में शराब और डिस्को व्यवसायी सचिन दत्ता को निरंजनी अखाड़े का महामंडलेश्वर बनाये जाने पर बड़ा विवाद हुआ।

व्यवसायी से धार्मिक नेता बनने तक की उनकी कहानी ने अखाड़ा परिषद और धर्मगुरुओं में भी मतभेद उभरने लगे। अनेक सवाल खड़े हो गये। सचिन दत्ता, जो पहले रियल एस्टेट और डिस्को व्यवसाय में सक्रिय थे, ने 22 साल की उम्र में संन्यास लिया। अग्नि अखाड़े के प्रमुख कैलाशानंद गिरी के मार्गदर्शन में उन्होंने ‘सच्चिदानंद महाराज गिरी’ नाम ग्रहण किया। हालांकि, उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया और धार्मिक मान्यता पर हमेशा सवाल भी उठाये जाते रहे। आरोपों के मुताबिक, महामंडलेश्वर का पद पैसे और रसूख के आधार पर खरीदा गया था। सनातन धर्म में संन्यास और वैराग्य के महत्व को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। एक महामंडलेश्वर बनने के लिए कठोर नियम और तपस्या की आवश्यकता होती है। संस्कृत, वेद-पुराणों का ज्ञान, वैराग्य और जीवन में संन्यास का पालन इस प्रक्रिया के अभिन्न अंग हैं, लेकिन हाल के घटनाक्रमों ने इन नियमों की पवित्रता को धूमिल किया है। चाहे वह ममता कुलकर्णी का मामला हो या सचिन दत्ता का, दोनों ही उदाहरण यह दर्शाते हैं कि आध्यात्मिकता का यह क्षेत्र अब विवादों और व्यावसायिक लाभ का माध्यम बनता जा रहा है।

महामंडलेश्वर कैलाशा नंद गिरी का उदाहरण भी सनातन धर्म में उठ रहे विवादों को दर्शाता है। उन पर 1997 में अपहरण का आरोप लगा था और उनकी संपत्तियों की कुर्की भी हुई। बावजूद इसके, वे अपने प्रभाव और राजनीतिक संबंधों के चलते इन विवादों से बच निकलते रहे। इसी प्रकार, अखाड़ा परिषद के भीतर राजनीति और पैसे का दखल लगातार बढ़ता जा रहा है। स्वामी धर्मदत्त जैसे संतों ने इन मुद्दों को उजागर करते हुए दावा किया कि कुछ अपराधी तत्वों ने संत का वेश धारण कर धर्म का अपमान किया है। किन्नर अखाड़े ने ममता कुलकर्णी को महामंडलेश्वर बनाकर एक अनूठी पहल की है। यह पहल किन्नर समुदाय को मुख्यधारा में लाने का एक प्रयास हो सकती है, लेकिन इसका विरोध भी हो रहा है।

सवाल यह है कि क्या ममता ने 23 साल की तपस्या और संन्यास जीवन की परीक्षा पास की, जैसा कि दावा किया जा रहा है? आज के परिदृश्य में, धर्म और अध्यात्म का व्यावसायीकरण होता दिख रहा है। गंगा में डुबकी लगाना, भगवा पहनना और धार्मिक पदवी पाना एक नया ‘धंधा’ बनता जा रहा है। ऐसे में, धर्म की वास्तविक मंशा और उसकी गरिमा को बनाये रखना एक चुनौती बन गई है और इस चुनौती को संतों-संन्यासियों को ही स्वीकार कर धर्म-आध्यात्म की गौरव-गरिमा को बनाये रखना होगा। ममता कुलकर्णी और सचिन दत्ता की कहानियां यह सवाल खड़ा करती हैं कि क्या संन्यास और धर्मगुरु की पदवी अब एक साधारण प्रक्रिया बन चुकी है? क्या धर्म के नाम पर हो रहे इन घटनाक्रमों से सनातन धर्म की पवित्रता और उसकी साख पर आंच नहीं आ रही? दरअसल सनातन धर्म को इस तरह के पाखंड से बचने-बचाने की जरूरत है।

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