मनुष्य के मस्तिष्क में जब ज्ञान का वास रहने पर विचारों का परिमार्जन होता है और उसके अंदर के ईर्ष्या-द्वैष जैसे भावों का अपने आप शमन हो जाता है। जब मनुष्य का परिष्कार होता है तो उसके अंदर से ईर्ष्या द्वैष की भावनाएं पूरी तरह से समाप्त हो जाती हैं अैर इंसान के प्रति प्रेमभाव जागृत होता है। व्यक्ति में अनेक प्रकार के विकार होते हैं।
विकारों की उत्पत्ति रोकने के लिए सत्संग की आवश्यकता एवं अच्छे विचारों को ग्रहण करने की जरूरत पड़ती है। इसलिए व्यक्ति को अच्छे विचारों की शरण लेनी चवाहिए। अपने आपको दूसरे से ऊंचा मानने की भावना अर्थात मनुष्य का अहं इसके लिए संयुक्त होता है। ईर्ष्या मनुष्य की हीनत्व भावना से संयुक्त है। अपनी हीनत्व भावना ग्रंथि के कारण हम किसी उद्देश्य या फल के लिए पूरा प्रयत्न तो कर नहीं पाते, उसकी उत्तेजित इच्छा करते रहते हैं। हम सोचते हैं क्यों करे हमारे पास अमुक वस्तु या चीज होती हाय!
स्पर्धा ईर्ष्या की पहली मानसिक अवस्था है। स्पर्धा की अवस्था में किसी सुख, ऐश्वर्य, गुण या मान से किसी व्यक्ति विशेष को सम्पन्न देख अपनी त्रुटि पर दुख होता है, फिर उसकी प्राप्ति की एक प्रकार की उद्वेगपूर्ण इच्छा उत्पन्न होती है। स्पर्धा वह वेगपूर्ण इच्छा या उत्तेजना है जो दूसरे से अपने आप को बढ़ाने में हमें प्रेरणा देती है। स्पर्धा बुरी भावना नहीं है। यह वस्तुगत है। इसमें हमें अपनी कमजोरियों पर दुख होता है। हम आगे बढ़कर अपनी निर्बलता को दूर करना चाहतें हैं।
स्पर्धा व्यक्ति विशेष से होती है, ईर्ष्या उन्हीं से होती है जिनके विषय में यह धारण होती है कि लोगों की दृष्टि उन पर अवश्य पड़ेगी या पड़ती होगी। ईर्ष्या के संचार के लिए पात्र के अतिरिक्त समाज की भी आवश्यकता है। समाज में उच्च स्थिति, दूसरों के सम्मुख अपनी नाक ऊंची रखने के लिए ईर्ष्या का जन्म होता है। हमारे पास वह वस्तु न देखकर भी मनोविकार का संचार हो जाता है। ईर्ष्या में क्रोध का भाव किसी न किसी प्रकार मिश्रित रहता है।
ईर्ष्या के लिए कहा भी जाता है कि अमुक व्यक्ति ईर्ष्या से चल रहा है। साहित्य में ईर्ष्या का संचारी रूप में समय-समय पर व्यक्त किया जाता है पर क्रोध बिलकुल जड़ भाव है। जिसके प्रति हम क्रोध करते हैं उसके मानसिक उद्देश्य पर ध्यान नहीं देते। असम्पन्न ईर्ष्या वाला केवल अपने को नीचा समझे जाने से बचने के लिए आकुल रहता है। धनी व्यक्ति दूसरे को नीचा देखना चाहता है। ईर्ष्या दूसरे की असम्पन्न्ता की इच्छा की आपूर्ति से उत्पन्न होती है। यह अभिमान को जन्म देगी। हम जितना ही अभिमान एवं ईर्ष्या जैसी भावनओं से बचने का प्रयास करेंगे उतना ही सृजनात्मक एवं रचनात्मक विचारों की तरफ आगे बढ़ेंगे।





