हो सकता है यह पंक्ति पढ़कर कि साल 2020 हिंदी साहित्य को बहुत कुछ देकर भी जा रहा है, कुछ लोग चौंकें, कुछ लोगों को अटपटा लगे, लेकिन वास्तविकता यही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मंगलेश डबराल जैसे मानवतावादी कवि योगेश गौड़ और अभिलाष जी जैसे दिल को छूने वाले गीतकार, राहत इंदौरी जैसे राजनीतिक शायर, कृष्ण बलदेव वैद्य जैसे आधुनिक गद्य के वरिष्ठ शिखर और गिरिराज किशोर जैसे जीवनी लेखन की विशिष्ट विधा विकसित करने वाले जिन साहित्यकारों को 2020 ने हमसे छीन लिया है, उनकी कमी हमेशा खलेगी।
इतना ही नहीं इस साल ने अपने तकनीकी विस्तार और आक्रामकता के चलते हिंदी लेखकों को लगभग मुफ्त का श्रमिक बना दिया है। इस साल के पहले जब कभी किसी सेमिनार में, किसी लेखक को उसके वक्तव्य के लिए बुलाया जाता था, तो न केवल उसे सम्मान से मंच में बिठाया जाता था बल्कि उसे वहां बोलने के लिए एक तय मानदेय भी मिलता था। लेकिन कोरोनाकाल में तेजी से फैली वेबिनार की संस्कृति ने लेखक को न सिर्फ मुफ्तिया माल बना दिया है बल्कि सहज, सुलभ भी कर दिया है।
फरवरी और आधे मार्च के पहले तक देश में कोरोना को लेकर माहौल में जो सनसनी घुलने लगी थी और अंतत: जिसके चलते 25 मार्च 2020 के बाद एक-एक करके चार चरणों का लॉकडाउन किया गया, उस लॉकडाउन का भले ज्यादातर लोगों को नुकसान हुआ हो, लेकिन कम से कम देश के प्रकाशकों ने इस लॉकडाउन का खूब फायदा उठाया है। जिस तरह से लॉकडाउन लगते ही हिंदी के तमाम बड़े प्रकाशकों ने करीब-करीब हर हफ्ते वेबिनार और लाइव की सतत् श्रृंखलाएं शुरु कर दीं, उसे देखकर तो एकबारगी लगता है कि जैसे ये लोग इसकी पहले से ही तैयारी कर रहे थे।
अपने नकचढ़ेपन के लिए विख्यात और आधुनिक तकनीक से छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले हिंदी लेखकों ने शायद पहली बार तकनीकी के सामने इतनी सहजता से बिना कोई कोशिश किये समर्पण किया। हर बड़ा लेखक दिन में कई-कई बार, कई-कई जगहों पर न सिर्फ लाइव हुआ, अपने विचार व्यक्त किये बल्कि कविताओं, कहानियों से लेकर लंबे-लंबे पुस्तक अंशों तक के पाठ किये और आश्चर्यजनक किंतु सत्य यह कि मेरी खोजबीन के मुताबिक इसमें करीब 99.99 फीसदी साहित्यकारों ने सब कुछ मुफ्त में किया।
शायद एक तरफ उनके अपने प्रकाशकों का दबाव था कि अगर इस आपदाकाल में वे पाठकों के समक्ष उपस्थित नहीं रहेंगे तो कोरोना की कालिमा में खो जाएंगे। और शायद दूसरा दबाव अचानक तकनीकी के महत्व को देखकर उनमें पैदा हुआ भय था कि अब क्या होगा? क्योंकि भविष्य की करीब करीब कल्पित दुनिया ऐसे ही तकनीकी प्रधान होने वाली है।
इन दबावों और लंबे समय तक सोशल मीडिया की गैरजरू री उपेक्षा करते रहने के अपराधबोध के चलते हिंदी के लेखकों ने मानो इस नयी वर्चुअल उपस्थिति वाली तकनीक के सामने पूरी तरह से समर्पण कर दिया, कहना चाहिए चारों खाने चित। निश्चित रूप से यह गलत नहीं हुआ। यह हिंदी समाज के लिए ही नहीं बल्कि आने वाले समय में वैश्विक समाज के लिए भी बड़ा महत्वपूर्ण परिवर्तन साबित होगा। लेकिन अफसोस है तो बस इतना कि हिंदी के प्रकाशकों ने और दूसरे गैर प्रकाशक कारोबारियों ने भी हिंदी लेखक को एक बार फिर से ठग लिया। उनसे इस दौरान करीब-करीब सारी मेहनत मुफ्त, बेगार के रूप में करवायी गई।