निष्काम कर्मयोग

मनुष्य जब तक भौतिक सुख-सुविधाओं, विषयों और सांसारिक चीजों से आबद्ध रहता है तो उसमें सही अर्थों में वैराग्य आ ही नहीं सकता है। हमारे यहां वैराग्य की बड़ी महिमा है। जब तक मनुष्य संसार और सांसारिक पदार्थों के राग-मोह में फंसा रहता है तब तक आत्मोत्कर्ष की संभावना नहीं होती। इसलिए प्राचीनकाल के महापुरुष सम्पदा की आकांक्षा और ममता को पतनकारी बतला गये हैं पर अनेक लोग इसका गलत आशय समझकर केवल लंगोटी लपेटकर जंगल या पहाड़ में बैठने को वैराग्य मानने लगे हैं। इस प्रकार के अज्ञान मूलक त्याग से कोई विशेष लाभ नहीं होता।

त्याग और वैराग्य का तत्व केवल पदार्थों के छोड़ देने से नहीं है वरन उनका सदुपयोग करके दूसरों को लाभ पहुंचाना ही उसका मुख्य उद्देश्य है। संसार की वस्तुओं में मालिकी के विचार रखने से उनका दुरुपयोग होता है और संसार के समस्त पदार्थों को करने में सामग्री का उपयोग धर्म, न्याय और सुख के कार्यों में होता है। संसारिक वस्तुओं से वैराग्य करना, उनका ठीक प्रकार से उपयोग करने की कला सीखना है लेकिन आज तो कर्तव्य त्यागी को ही वैरागी कहने की प्रथा उठ खड़ी हुई है। वैराग्य का सारा रहस्य निष्काम कर्मयोग में छिपा हुआ है।

मानव जाति के सबसे महान दर्शन शास्त्र गीता में निष्काम कर्मयोग पर ही सबसे अधिक बल दिया गया है। संसार में हमें किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए इसका प्रकार समझने की चेष्टा करनी चाहिए। निष्काम कर्म और कर्मयोग यह दो शब्द हैं। निष्काम से तात्पर्य अलग रहने, न मिल पाने, निर्लिप्त रहने से है। कर्मयोग का तात्पर्य कर्तव्य धर्म पालन करने से है। जीव का धर्म यह है कि वह विकास के निमित्त अहं भाव क प्रसार करे। अपनी आत्मीयता को दूसरों तक बढ़ावे, अपने स्वर्थों को दूसरों के स्वार्थ से जोड़ने के दायरे को बढ़ाता जाये।

यह आध्यात्मिक उन्नति यदि वास्तविक हो तो वह आदमी अपनी शक्तियों का अधिक से अधिक भाग दूसरों के वास्ते लगाता है और कम से कम भाग अपने लिए रखता है। अर्थात वह सेवा धर्म अपना लेता है और परोपकार में रहता है। उसका दृष्टिकोण संकुचित स्वार्थ पूरा करने का नहीं होता वरन उदारता सहित परमार्थ को लिए हुए होता है जो जितना परमार्थ चिंतक है वह उतना ही बड़ा महात्मा कहा जायेगा। हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों को ठीक तौर से पहचानने में लोग बड़ी भूल करते हैं। उनकी दृष्टि इतनी ही पहुंचती है कि ऋषि-मुनि नगरों से दूर जंगलों में रहते थे और फल फूल खाकर जीवनयापन करते थे। आजकल के साधु नामधारी तथा कथित बैरागी अपना वैराग्य उसी की नकल का बनाते हैं। जीवन की आवश्यकताओं तो घटाते हैं पर बची हुई शक्ति परमार्थ में नहीं लगाते।

RELATED ARTICLES

शिव वास योग में शुरू होगा सावन का महीना

लखनऊ। इस बार सावन का पावन महीना 11 जुलाई से शुरू हो रहा है। सावन का समापन 9 अगस्त को रक्षा बंधन के दिन...

मुंबई की चॉल में रहने वाले दो बच्चों की कहानी है ‘चिड़िया’

एक घंटा 50 मिनट का रनटाइम फिल्म के लिए मुफीद साबित होता हैलखनऊ। वर्ल्ड सिनेमा के एक्सपोजर के बाद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की मूवीज...

देवशयनी एकादशी आज, 4 माह तक भगवान विष्णु रहेंगे योग निद्रा में

लखनऊ। सावन मास की शुरूआत से पूर्व आने वाली हरिशयनी एकादशी, जिसे देवशयनी या देवपद्मनी एकादशी भी कहा जाता है, इस वर्ष 6 जुलाई...

Latest Articles