रामकृष्ण मठ में प्रात: कालीन सत्संग का आयोजन
लखनऊ। शुक्रवार के प्रात: कालीन सत प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानन्द जी ने बताया कि साधारणतया चार प्रकार के भक्त भगवान का भजन करते हैं। यह बात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता में कहा चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। अर्थात हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी – ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझे भजते हैं। स्वामी जी ने बताया कि ये चारों प्रकार के भक्त ही भाग्यशील है, कारण ये सब श्री भगवान को ही प्राप्त करेंगे। स्वामी मुक्तिनाथानन्द जी ने बताया जिनकी भगवान में रुचि हो गई है वही भाग्यशील है, वे ही श्रेष्ठ है और वही मनुष्य कहलाने योग्य है। वो रुचि चाहे किसी पुण्य कर्म से हो गई हो, चाहे आपद समय में दूसरों का सहारा छूट जाने से हो गई हो, किसी भी कारण से भगवान में रुचि होने से वो भाग्यशील मनुष्य है। स्वामी जी ने कहा कि इस चारों के भीतर प्रथम अर्थार्थी भक्त हैं जिनको अपनी सुख-सुविधा की इच्छा हो जाती है अर्थात धन संपत्ति वैभव आदि की इच्छा हो जाती है परंतु वे केवल भगवान से ही चाहते हैं, दूसरे से नहीं। ऐसे भक्त अर्थार्थी भक्त कहलाते हैं। अर्थार्थी भक्त के पूर्व संस्कारों में धन की इच्छा रहती है और वो धन के लिए चेष्टा भी करते हैं पर वो समझते हैं कि भगवान के सिवाए धन की इच्छा पूर्ण करने वाला कोई नहीं है। ऐसा समझकर वो भगवान का जप, कीर्तन, ध्यान आदि करते रहते हैं। उन्होंने कहा कि अर्थार्थी भक्त में ध्रुव का नाम लिया जाता है। एक दिन बालक ध्रुव के मन में राजा के गोद में बैठने की इच्छा हुई पर छोटी मां ने बैठने नहीं दिया। उसने ध्रुव से कहा, ह्लतूने भजन नहीं किया तू अभागा है अर्थात तू राजा की गोद में बैठने का अधिकारी नहीं है। यह बात ध्रुव ने अपनी मां से कहा। ध्रुव की मां ने कहा, बेटा! तेरी छोटी मां ने ठीक ही कहा है, भजन न तूने न मैंने ही किया। इस पर ध्रुव ने मां से कहा, मां अब तो मैं भजन करूंगा। ऐसा कहकर वो भगवान भजन के लिए घर से निकल पड़े और मां ने भी हिम्मत करके ध्रुव को जंगल में जाने की आज्ञा दे दी। रास्ते में नारद जी ने ध्रुव को रोका और कहा, तू मेरे साथ चल, राजा मेरी बात मानते हैं मैं तेरा और तेरी मां का प्रबंध करवा दूंगा। लेकिन ध्रुव ने कहा, महाराज! मैं तो अब भगवान का भजन ही करूंगा। ध्रुव की ऐसी दृढ़ता देखकर नारद जी ने उनको द्वादश अक्षरी मंत्र दिया। ऊं नमो भगवते वासुदेवाय और भगवान विष्णु का ध्यान बताकर भजन करने की आज्ञा दी। ध्रुव ने वन में जाकर ऐसा निष्ठापूर्वक भजन किया कि उनकी निष्ठा देखकर छ: माह के भीतर ही भगवान ध्रुव के सामने प्रकट हो गए। भगवान ने ध्रुव को राजगद्दी का वरदान दिया किंतु इस वरदान से ध्रुव को खुशी नहीं हुई कारण भजन के कारण उनका अंत:करण शुद्ध हो गया था। स्वामी मुक्तिनाथानन्द जी ने बताया कि ध्रुव के जैसे अर्थार्थी भक्त को याद करते हुए अगर हम भी भगवान के चरणों में आंतरिक शुभ प्रार्थना करते रहे तब वे अवश्य हमारी प्रार्थना सुनकर हमें प्रत्यक्ष दर्शन दान करते हुए जीवन सफल और सार्थक कर देंगे।