जिनका दैनिक जीवन पाप, द्वैष, दुराचार, दुष्टता और अनीति में डूबा रहता है, कुविचारों से जिनका मन और कुकर्मोंं से जिनका शरीर निरन्तर दूषित बना रहता है, उनका अन्त:करण भी गंदा रहेगा और उस गंदगी में दिव्य तत्वों का अवतरण कैसे संभव हो सकेगा? साधना में शक्ति तब आती है जब श्रद्धा और विश्वास, संयम और सदाचार का पुट भी समुचित मात्रा में लगता चले।
दैनिक जीवन की पवित्रता ही इस बात की कसौटी है कि किसी व्यक्ति ने अत्यधिक तत्वज्ञान को हृदयांगम किया है या नहीं। यह निष्ठा जिसके भीतर उतरेगी, उसके गुण, कर्म, स्वभाव में श्रेष्ठता एवं सज्जनता की मात्रा अन्य व्यक्तियों की तुलना में बढ़ी-चढ़ी ही होगी। ऐसा पवित्र और आदर्श जीवन बिताने वाले के लिए आत्मिक प्रगति नितान्त सरल है।
ईश्वर का दर्शन, आत्म साक्षात्कार उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है। इतिहास, पुराणों में ऐसी अगणित कथाएं आती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि सदाचारी श्रेष्ठ आचरणों वालेऔर उत्कृष्ट भावना सम्पन्न साधारण श्रेणी के साधारण साधना करने वाले व्यक्तियों को योगी, यती, तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी लोगों की भांति ही ईश्वरीय अनुकंपा एवं अनुभूति का अनुभव हुआ है। कारण स्पष्ट है कि योग साधना का उद्देश्य केवल इतना ही है कि आंतरिक दुष्प्रवृत्तियों का शमन और संयम किया जाये।
चित्त वृत्तियों के निरोध को ही महर्षि पतंजलि ने योग कह कर पुकारा है। यह कार्य व्यवहार के जीवन में सत्य निष्ठा और परमार्थ बुद्धि को स्थान देने से भी संभव हो सकता है। शबरी, सूर, मीरा, कबीर, रैदास, केवट गोपियां, नरसी, धन्ना आदि के ऐसे असंख्यों चरित्र मौजूद हैं जिन पर विचार करने से प्रतीत होता है कि भावपूर्ण उत्कृष्ट अन्त:करण का निर्माण योगाभ्यास के अतिरिक्त व्यवहारिक जीवन को शुद्ध रखने से भी संभव हो सकता है।
उच्च अन्तरात्मा द्वारा की हुई स्वल्प एवं अविधिपूर्वक की गयी सामना भी भारी सत्यपरिणाम प्रस्तुत कर सकती है। वाल्मीकि डाकू की मनोभूमि जब पलटी तो शुद्ध राम नाम ले सकने में असमर्थ होने पर मरा-मरा कहते हुए उल्टा नाम जपते हुए भी वे ऋषित्व को प्राप्त कर सके।
सदन कसाई, गणिका, अंजामितल, अंगुलिमाल, आम्रपाली आदि अनेकों चरित्र ऐसे मौजूद हैं जिनमें अन्त:करण को परिवर्तन होते ही स्वल्प साधना से भी उच्च स्थिति की उपलब्धि का प्रमाण मिलता है। देर तक कठोर शारीरिक तपश्चर्याएं करने पर भी बहुत पूजा उपासना करते रहने पर भी जब आत्मिक प्रगति नहीं देख पड़ती तो उसका एक मात्र कारण यही होता है कि अन्तकरण के विकास का प्रयत्न नहीं किया गया।