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मन के विकार

प्राय: जिस बात से शरीर में विकार तथा विविध व्याधियां उत्पन्न होती हैं, उनका प्रधान कारण शरीर में संचित होने वाले हानिकारक पदार्थ हैं। हम अनाप-शनाप खाते हैं, अप्राकृतिक भोजन प्रयोग में लाते हैं, घर और कल कारखनों या ऑफिसों में बंद पड़े रहते हैं। अत: शरीर और अंतड़ियों में दूषित द्रव्य जमा जो जाता है।

यह संचित हानिकारक पदार्थ कुछ दिनों तक तो पड़ा रहा है किन्तु बाद में रक्त को दूषित बना देता है। पाचन प्रणाली दोषयुक्त हो जाती है, विसर्जन का कार्य करने वाले अवयव शिथिल हो जाते हैं। तब शरीर अन्तर-वाह्य रोगी व दुर्बल बन जाता है। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि उदर को कुछ काल के लिए विश्राम दे दिया जाये।

भोजन बंद करदेने से, रक्त स्वच्छ और विषाक्त नहीं होने पाता और अनेक रोग उत्पन्न होने की संभावना नहीं रहती। हमारे शरीर के ज्ञान तन्तुओे पर बहुत जोर नहीं पड़ता। अत: शरीर का बल बढ़ता है और ओज क्षीण नहीं होने पाता। बिना पचा हुआ जो भी अंश पेट में फालतू पड़ा रहता है, वह धीरे-धीरे पचता है, पेट की तोंद नहीं निकल पाती।

डा. लिंडहार लिखते हैं- उपवास में शरीर को अंदर एकत्र भोजन का उपयोग शुरू करना होता, किन्तु इसके पूर्व शरीर की बहुत सी गंदगी और विष निकल जाते हैं। हम यह जान लेते हैं कि हमारी सारी की सारी पाचन प्रणाली, जो 26 फुट लंबी होती है और जिसका आरम्भ मुख और अन्त गुदा द्वार है, ऐसे सेलों और ग्रन्थियों से सुसज्जित है, जिसका काम गंदगी निकालना है, तब लंबे उपवास का शोधक प्रभाव अच्छी तरह समझ में आ जाता है।

वास्तव में उपवास हमारे वर्षों के संचित हानिकारक पदार्थ को बाहर फेंक कर नयी जीवन शक्ति फूंक देता है। शरीर की गंदगी और विष उपवास काल में पिये गये जल द्वारा आसानी से निकलते रहते हैं। अनेक रोगियों को उपवास ही कारण करया जाता है जिससे अांतों की श्लैष्पिका कला को, हानिकारक पदार्थों की सफाई का अवसर मिले। जो पूरी सफाई चाहते हैं, किसी प्राकृतिक चिकित्सक की देखरेख में लंबा उपवास करते हैं।

यह संचित हानिकारक पदार्थ धीरे-धीरे निकलता है, पर सफाई होने के कारण कब्ज पूरी तरह चला जाता है। स्वास्थ्य आरोग्यता, दीर्घायु के अतिरिक्त आध्यात्मिक दृष्टि से उपवास का विशेष महत्व है। शरीर की शुद्धि होने से मन पर भी प्रभाव पड़ता है। शरीर तथा मन दोनों में परस्पर घनिष्ठ संबंध है। जब हमारा पेट भरा होता है, तो दृष्टि भी मैली हो जाती है।

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