कुविचारों का त्याग करें

साधना एक व्यापक आत्मिक उन्नति का मार्ग है और इसी माध्यम से व्यक्ति अपनी संपूर्णता को प्राप्त कर सकता है। आज साधना का अर्थ केवल भजन पूजन समझा जाता है और किसी देवी देवता से कुछ सिद्धि वरदान प्राप्त करना या परलोक में स्वर्ग मुक्ति का अधिकारी बनना उसका उद्देश्य माना जाता है।

साधना के अन्तर्गत यह बात भी आती है पर उसका क्षेत्र इतना ही नहीं इससे कहीं अधिक विस्तृत है। भौतिक अध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों की उन्नति एवं सुव्यवस्था का साधना से सीधा संबंध है। मनुष्य का शारीरिक पुरुषार्थ पशुओं के पुरुषार्थ से भी घटिया दर्जे का है। उसकी विशेषता तो बौद्धिक एवं आध्यात्मिक ही है। इसी बल के आधार पर वह सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी बन सका है। इसी के उत्कर्ष एवं पतन पर उसका वर्तमान एवं भविष्य निर्भर रहता है।

साधना से हमारे अंत: प्रदेश का ऐसा शोधन, पारिष्कार एवं अभिवर्द्धन होता है जिसके फलस्वरूप सर्वतोन्मुखी उन्नति का द्वारा खुले और जो विघ्न बाधाएं प्रगति का मार्ग रोकते हैं उन्हें हटाया जा सके। पिछले पृष्ठों पर लौकिक समस्याओं को सुलझाने में साधन किसी प्रकार सहायक होती है, इस तथ्य पर कुछ प्रकाश डाला गया है। स्वाध्याय और सत्संग, चिंतन और मनन यह चार उपाय अपनी अन्त:भूमि के निरीक्षण परीक्षण करने, त्रुटियों एवं दोषों को समझने तथा कुविचारों को त्यागकर सत्प्रवृत्तियां अपनाने के हैं। यह चार उपाय भी साधना के ही अड्डे हैं।

जीवन समस्याओं को सुलझाने में सहायक सद्ग्रंथों का स्वाध्याय करना हर विचारशील धर्मप्रेमी व्यक्ति का एक दैनिक नित्य कर्म होना चाहिए। आज किन्हीं पौराणिक कथा-ग्रंथों या हजारों लाखों वर्ष पूर्व की स्थिति के अनुरूप मार्ग दर्शन करने वाले संस्कृत ग्रंथों का बार-बार बढ़ना ही स्वाध्याय माना जाता है।

यह मान्यता अस्वाभाविक है। आज हमें ऐसी पुस्तकों के स्वाध्याय की आवश्यकता है जो वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप जीवन के सर्वांगीण विकास में सहाय हो सकें। प्रत्येक युग में सामयिक ऋषि उत्पन्न होते हैंऔर वे देशकाल पात्र के अनुरूप जन शिक्षण करते हैं।

आज के युग में गांधी, विनोबा, दयानन्द, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस, तुमाराम, कबीर आदि संतों का साहित्य जीवन निर्माण की दिशा में बहुत सहायक हो सकता है। आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास का जो विवेचनात्मक सत्साहित्य मिल सके हमें नित्य नियिमत रूप से पढ़ते रहना चाहिए। स्वाध्याय की दैनिक आदत इतनी अनावश्यक है कि उसकी उपेक्षा करने से आत्मिक प्रगति के मार्ग में प्राय: अवरोध ही पैदा हो जाता है।

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