हर कोई हैरान है कि सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कैसे कर ली? क्योंकि वो सफल है, उठता हुआ सितारा है, चढ़ता हुआ सूरज है… वगैरह वगैरह, लेकिन ऐसा कहने वाले मेरा दावा है कि सुशांत सिंह के साथ छह दिनों तक भी लगातार नहीं बिताये होंगे। दूर से हम सबको हर किसी की जिंदगी बहुत अच्छी लगती है, बहुत सफल लगती है… क्योंकि हम उसकी रिएल्टी नहीं जान रहे होते। स
ब लोगों ने यह तो देखा है कि वह स्क्रीन में बहुत सक्सेसफुल हैं। लेकिन उसके दिल में क्या बीत रही थी? क्या वह मेंटली बीमार था? क्या वह अपने लिए बहुत कुछ रातोंरात चाहिए था जो नहीं मिला? क्या वह किसी फाइनेंशियल स्ट्रेस में था? क्या पता उसे कोई ब्लैकमेल कर रहा हो? क्या पता वह डिप्रेशन का शिकार हो और मीनिया में आ गया हो, क्योंकि डिप्रेशन में कोई आत्महत्या नहीं कर सकता, डिप्रेशन में तो उठकर के एक गिलास पानी भी नहीं पिया जाता। जबकि सुसाइड के लिए तैयारी करने पड़ती है, कुछ चीजें व्यवस्थित करनी पड़ती हैं।
डिप्रेशन में कोई आत्महत्या नहीं कर सकता। डिप्रेशन का मतलब है ‘यू आर इन लो। ऐसे में आप अपने को फांसी पर कै से चढ़ाओगे? जब आप थोड़े हाई होंगे तभी तो यह सब कर सकते हैं। वास्तव में इस तरह की घटनाओं के पीछे एक ही बड़ा कारण होता है, हम अपने आपसे प्यार नहीं करते। हम खुद अपनी जरूरत नहीं समझते, हम अपने को महत्वपूर्ण नहीं मानते। इसलिए अपने को खत्म कर लेते हैं। लॉकडाउन के कारण लोगों में डिप्रेशन भी बढ़ा है और एंग्जाइटी भी।
इसके बहुत सारे कारण हैं, एक तो यही कि लोगों को यह नहीं पता चल पा रहा कि वे कब इस सबसे बाहर आ पाएंगे? लोग इस दुश्चिंता से भी घिरे हैं कि कल को अगर मुझे कोरोना हो जाता है, तो मैं हॉस्पिटल कैसे पहुंचूगा? चीजें कै से मैनेज होंगी? हमारे पास साधन क्या हैं? सरकार और सिस्टम में जो जिम्मेदार लोग हैं, ठीक भी बोल रहे हैं? इस तरह का भी शक कि कहीं हम इस महामारी के कैरियर तो नहीं हैं।
बहुत सारी अपनी ही बातों पर डिसबिलीफ भी होता है। कई बार यह भी लगता है कि सब बेकार की बातें हैं, ऐसा कुछ नहीं होता मास्क लगाने की भी जरूरत नहीं हैं। ये सब डॉक्टर लोग बढ़ा-चढ़ाकर बातें बता रहे हैं। कहने का मतलब यह कि लोगों का पूरे सिस्टम से रिएल्टी से डिसबिलीफ हो रहा है और यह डिसबिलीफ स्वाभाविक है। आमतौर पर जब महामारी जैसी बातें नहीं होतीं, तब भी इस तरह डिसबिलीफ की बातें होती हैं। बस होता यह है कि तब हमें यह सब समझ में नहीं आता। आप कई बार जिन चीजों को मानते हैं, जिन पर भरोसा करते हैं, उन पर भी डिसबिलीफ करते हैं।
मसलन आप डायबिटिक पेशेंट हैं फिर भी आपका मिठाई खाने का मन है तो आप खुद ही तर्क गढ़ लेंगे, अरे कुछ नहीं होता। फिर कहेंगे अरे एक बार में कुछ नहीं होता। जब एक बार कर लेंगे तो फिर यह भी स्थिति आयेगी कि आप दूसरी बार भी वही हरकत दोहरा सकते हैं और उसके पीछे वही तर्क होगा, कुछ नहीं होता। एक बार में कुछ नहीं होता तो जाहिर है आप मानेंगे कि दो बार में भी कुछ नहीं होता। कहने का मतलब यह कि हम अपने आपसे भी डिसबिलीफ करते हैं।