शिल्प सृष्टि-तकनीकी दक्षता और माध्यम की सृजनात्मक सम्भावनाओं की समझ दर्शाते है : जय कृष्ण

इन मूर्तिशिल्प को देखकर मुझे भविष्य की संभावनाएं दिख रही है – राजीवनयन
लखनऊ। कला स्रोत आर्ट गैलरी में रविवार को शुरू हुई ‘शिल्प सृष्टि’ नामक समूह प्रदर्शनी में समसामयिक विषयों को उजागर करने वाली कृतियों की एक सामूहिक प्रदर्शनी लगायी गयी। जिसमें टेराकोटा,सैंड स्टोन,मार्बल और लोहे का प्रयोग करते हुए पांच कलाकारों श्रद्धा तिवारी,तेज प्रताप,आकाश कुमार राणा,शमशेर द्वारा बनाई गई 20 मूर्तिशिल्प प्रदर्शित किये गए हैं। सभी युवा कलाकार डॉ शकुन्तला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय के दृश्यकला विभाग के परास्नातक मूर्तिकला के छात्र हैं। यह प्रदर्शनी मूर्तिकार , डीन,डॉ शकुन्तला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय पी राजीवनयन द्वारा क्यूरेट की गई है और इस प्रदर्शनी का उद्घाटन वरिष्ठ कलाकार जयकृष्ण अग्रवाल ने किया। श्रद्धा तिवारी ने टेराकोटा माध्यम में शिल्प बनाई है। फूलों से सजी महिला के चेहरे के माध्यम से सौंदर्य और नारीत्व को दशार्ने का प्रयास किया है। कृति में स्त्रीत्व और प्रकृति के भाव समाहित है। श्रद्धा बताती हैं कि आजकल जैसे-जैसे लोग प्रकृति से दूर होकर भौतिकवादी जीवन की ओर बढ़ रहे हैं, उनका अस्तित्व कमजोर होता जा रहा है। यह प्रतिमा दशार्ती है कि जैसे-जैसे हम प्रकृति के करीब आते हैं, हम सकारात्मकता की ओर बढ़ते हैं क्योंकि हमें खुद से परिचय होता है। प्रकृति से निकटता हमें मानसिक शांति और आत्म-साक्षात्कार प्रदान करती है, जिससे हमें जीवन के सच्चे मूल्यों को समझने में मदद मिलती है।
वहीँ दूसरे कलाकार सुशील यादव ने भी टेराकोटा माध्यम मूर्तिशिल्प बनाईं हैं जो जड़ों की कल्पना के माध्यम से मानवीय स्थिति का पता लगाती हैं। उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे मनुष्य अपनी भावनाओं, समस्याओं, सपनों और संघर्षों में उलझा हुआ है। बिल्कुल उलझी हुई जड़ों की तरह। सुशील कहते हैं कि हमारे भीतर की अदृश्य जड़ें हमारी पहचान को बचाती हैं, लेकिन वे हमारे डर, संघर्ष और अधूरे सपनों को भी उलझाती हैं। यह मूर्ति उन्हीं उलझनों की कहानी कहती है, जहाँ मिट्टी में धंसी जड़ें हमारे अस्तित्व की खामोश चीखें गढ़ती जाती हैं। तीसरे कलाकार आकाश कुमार राणा ने शीर्षक दर्द का स्तंभ नामक एक मूर्ति प्रस्तुत की। यह मानव अस्तित्व,आंतरिक दर्द,लचीलापन और चेतना का प्रतिनिधित्व करता है जो अक्सर कहीं छिपे हुए रहते हैं। आज की दुनिया में, जो सही है उसके लिए खड़े होने के लिए रीढ़ की हड्डी होना आवश्यक है। राणा कहते हैं कि अपनी कला में रीढ़ की हड्डियों का उपयोग करता हूँ। मैं रीढ़ को सिर्फ़ शरीर का अंग नहीं मानता, बल्कि मानव अस्तित्व का प्रतीक भी मानता हूँ, जिसे मैं पत्थर जैसी ठोस चीजों में तराशता हूँ। मेरी कला आंतरिक दर्द, लचीलापन और चेतना को सामने लाती है जो आमतौर पर छिपी रहती है। हालाँकि मेरी कलात्मक शैली अमूर्तता की ओर झुकी हुई है, लेकिन इसकी संरचना, वक्रता और रेखाएँ भावना और गहराई की भावना पैदा करती हैं।
चौथे कलाकार के रूप में शमशेर हैं कहते हैं कि मेरी कला में, मेरा उद्देश्य आधुनिक और प्राचीन संस्कृतियों के बीच संवाद स्थापित करना है। पत्थर प्राचीन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है और मुझे मेरे जन्मस्थान की याद दिलाता है, जहाँ आज भी पारंपरिक पत्थर की वास्तुकला में घर बनाए जाते हैं। इसके विपरीत, मेरे शहरी निवास में आधुनिक धातुओं का उपयोग आधुनिक युग की ताकत, प्रगति, गतिशीलता और विकास का प्रतीक है। मेरे लिए, पत्थर और लोहा केवल भौतिक सामग्री नहीं हैं-वे दो अलग-अलग युगों का प्रतीक हैं: एक हमारी सांस्कृतिक विरासत में गहराई से निहित है, और दूसरा हमारे भविष्य की ओर इशारा करता है। मेरी कलाकृति में दोनों का उपयोग मेरी व्यक्तिगत भावनाओं और जीवित अनुभवों का प्रतिबिंब है।
पांचवें शिल्पकार तेज प्रताप कहते हैं कि मैं अपनी मूर्तिकला के अभ्यास में मैं प्रकृति को समझने और महसूस करने की कोशिश करता हूँ, लेकिन मैं इसे सीधे या यथार्थवादी तरीके से नहीं दिखाता। मैं इसे अमूर्त रूपों के माध्यम से व्यक्त करता हूँ-ऐसे रूप जो दर्शक को रुकने, प्रतिबिंबित करने और अपना अर्थ खोजने पर मजबूर करते हैं। मैं मुख्य रूप से पत्थर में काम करता हूँ, क्योंकि यह एक कालातीत और शक्तिशाली सामग्री है, जो अपने भीतर समय की परतें समेटे हुए है। जब मैं पत्थर तराशता हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है कि मैं प्रकृति के साथ एक शांत बातचीत कर रहा हूँ, इसकी स्थिरता, गहराई और मौन को महसूस कर रहा हूँ। आज की तेज और दिखावटी दुनिया में, मेरा मानना ​​है कि कला को हमें धैर्य होने और वास्तव में अनुभव करने के लिए करना चाहिए। मेरा काम चीजों को वैसे ही कॉपी करना नहीं है, जैसा वे हैं, बल्कि भावनाओं और विचारों को रूप में बदलना है। बहती नदियों की लय, पेड़ों का फैलाव, चट्टानों की ताकत ये सभी मेरी मूर्तियों में चुपचाप मौजूद हैं। मेरे लिए, मूर्तिकला केवल सामग्री को आकार देने के बारे में नहीं है; यह एक आंतरिक यात्रा है जहाँ मैं पत्थर में जीवन लाने की कोशिश करता हूँ। मेरा उद्देश्य ऐसी रचना करना है जो प्रकृति और मानव के बीच के रिश्ते को एक नए तरीके से व्यक्त करे, जो परंपरा में निहित हो लेकिन फिर भी वर्तमान से बात करे।
इस मूर्तिकला प्रदर्शनी पर जय कृष्ण अग्रवाल ने कहा कि प्रदर्शित सभी कार्य छात्रों की तकनीकी दक्षता और माध्यम की सृजनात्मक सम्भावनाओं की समझ दशार्ते है इसके लिए गुरू राजीवनयन बधाई के पात्र है। मैं सभी छात्र और छात्राओं के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ। साथ ही पाण्डेय राजीवनयन जी ने कहा कि ललित कला विभाग, शकुन्तला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास विश्वविद्यालय के अध्ययनरत पांच विद्यार्थियों के मूर्तिशिल्प को देखकर मुझे निश्चित ही भविष्य की संभावनाएं दिख रही है। इस आधुनिक काल में पारंपरिक माध्यमों में कार्य करना एवं उन माध्यमों को पूरी तरह से समझना तथा तथा उनकी संभावनाओं को तलाशना विद्यार्थी जीवन का एक प्रमुख ध्येय होना चाहिए तभी भविष्य में नई संभावनाओं को एक कलाकार ढूंढ़ सकेगा। इस दृष्टि से इस प्रदर्शनी को देखना चाहिए। मैं विगत लगभग एक दशक से विद्यार्थियों में व्याकरण की उपेक्षा का एहसास कर रहा हूं। लगभग 35 वर्षों के शिक्षण काल के अनुभव एवं एक मूर्तिकार के रूप में निरंतर कार्य करते रहने के अनुभव से मैं इतना अवश्य समझता हूं कि छात्र जीवन के उपरांत आप तभी सफल हो सकेंगे जब तक आप माध्यम की संभावनाओं एवं उनकी संवेदनशीलता को समझ पाएंगे, इन्हीं दृष्टि से मुझे इन युवा कलाकारों में संभावनाएं दिख रही हैं। भूपेंद्र अस्थाना ने कहा कि प्रदर्शनी में मूर्तियां इतनी अभिव्यंजक हैं कि कोई भी कलादर्शक, कला प्रेमी स्पष्ट रूप से आसानी से समझ सकता है कि कलाकार क्या व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं। यह प्रदर्शनी 31 मई 2025 तक अवलोकनार्थ लगी रहेंगी।

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