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कोरोना वायरस : अंदाज बदला है, बुझी नहीं है शाम-ए-अवध की महफिल

लखनऊ। कोरोना वायरस की महामारी से शाम-ए-अवध भले ही महफिलों, ओपन थिएटर और प्रेक्षागृहों से निकलकर बंद कमरों में सिमट गई हो लेकिन नवाबों के शहर लखनऊ के निवासियों का हौसला और जज्बा कहीं से सिमटता हुआ नहीं नजर आता और एक अलग अंदाज में शाम-ए-अवध का रंग बरकरार है।

कोरोना वायरस संक्रमण के चलते देश भर में हुए लॉकडाउन से कला और कलाकार भी दायरे में सिमट कर रह गए हैं हालांकि बंद कमरों में भी रचना और सृजनशीलता की नई परिभाषाएं लिखी जा रही हैं और महफिलों की शम-ए-रौशन है। सूफी गायकी के उभरते फनकार अवनीश मिश्र ने कहा, “मलिक मोहम्मद जायसी और नंददास सहित तमाम सूफी कवियों को पढ़ने और उन्हें करीब से जानने का अच्छा अवसर मिल रहा है। नई धुनों पर काम कर रहा हूं और हालात सामान्य होने पर गायकी के कुछ नए अंदाज शाम-ए-अवध में पेश करूंगा।” मिश्र ने कहा कि मुलाकात ना सही, लेकिन वीडियो चैट के जरिए तमाम कला प्रेमी और संगीत प्रेमी दोस्तों से रोजाना संपर्क होता है। गीत और संगीत के नए प्रयोग तो हो ही रहे हैं, फ्यूजन पर भी मिल जुल कर काम करने का अच्छा मौका मिल रहा है।

राजधानी लखनऊ के अलावा मुंबई, दिल्ली, बेंगलूरू, हैदराबाद, जयपुर, कोलकाता सहित देश के प्रमुख शहरों तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड, दुबई और अमेरिका जैसे शहरों में अपनी ड्रम की कला का जलवा बिखेर चुके तन्मय मुखर्जी ने बताया कि 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दिन जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर लोगों ने शंख, घंटा, घड़ियाल और थालियां बजाईं थीं तो उन्होंने भी जापलिंग रोड स्थित अपनी आवासीय सोसाइटी में ड्रम बजाकर लोगों का उत्साह़ बढ़ाया था।

तन्मय बताते हैं कि आलम ये था कि हर फ्लैट की बालकनी से कोई कुछ ना कुछ साज या बर्तन लेकर उनके साथ ताल से ताल मिला रहा था। अब ये रूटीन हो गया है। घर पर रहता हूं। दिन भर प्रैक्टिस करता हूं। शाम को अपनी बालकनी पर जेम्बे या छोटा ढोल लेकर बैठता हूं तो आसपास के लोग भी अपनी अपनी बालकनी पर आ जाते हैं और कोई ना कोई साज हम सब मिलकर बजाते हैं। ये अपनी तरह का अलग मनोरंजन है, जिसमें हम सोशल डिस्टेंसिंग का भी पालन कर रहे हैं और रिदम का मजा भी उठा रहे हैं।

नवाबों के जमाने से प्रचलित पतंगबाजी भी इन दिनों लखनऊ के आकाश पर खूब दिख रही है। शाम को सैकडों पतंगें आसमान पर इठलाती और कुछ पेंच लड़ाती नजर आती हैं। पतंगबाजी के पुराने शौकीन शैलेन्द्र शुक्ला, जिन्हें झंडे वाले शुक्ला के नाम से भी जानते हैं, ने बताया कि शाम के चार बजते ही बच्चे और बड़े अपनी-अपनी छतों पर नजर आने लगते हैं और फिर शुरू होता है पतंगबाजी का जबर्दस्त दौर, जो अंधेरा होने तक जारी रहता है। इस सवाल पर कि पतंगें कहां से मिल रही हैं, शैलेन्द्र का जवाब था कि हर शौकीन पतंगबाज के पास पुरानी पतंगें, मांझा, सद्दी और चरखी मिल ही जाएगी।

पतंग की दुकानें तो खुल नहीं रही हैं, ऐसे में पुराने कोटे से ही काम चल रहा है। कुल मिलाकर शाम-ए-अवध का नजारा बदला बदला सा है लेकिन शामें खाली नहीं हैं। संगीत लहरी भी छिड़ रही है, डायलाग और एक्टिंग के जलवे बिखर रहे हैं, कहीं सिंथेसाइजर, कहीं माउथ आर्गन, बांसुरी, तबला, ढोलक, हारमोनियम, सेक्सोफोन, जेम्बे, ड्रम तो कहीं कराओके पर गीत किसी ना किसी घर से सुनाई देता है। लाकडाउन के बावजूद शाम ए अवध का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है।

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