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कांग्रेस को अब महामंथन की जरूरत

बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा पर्याप्त संख्या में सीटें नहीं जीते जाने को लेकर इस पार्टी की अंदर और बाहर काफी आलोचना हुई। यह माना गया कि कांग्रेस का बढ़िया प्रदर्शन ना करना महागठबंधन के सत्ता में नहीं आने का प्रमुख कारण बना। वैसे विश्लेषक कांग्रेस ही नहीं हर राजनीतिक दल की समीक्षा चुनावों में खालिस जीत और हार के आधार पर किया करते हैं।

जब पार्टी विजेता बनती है या पहले से बेहतर प्रदर्शन करती है तो उस पार्टी की वैचारिक और जनहितकारी उसूलों के बिना तात्विक परीक्षण किये उसकी तारीफ कर दी जाती है और जब हारती है तो उसकी अन्य सारी परिस्थिति और पक्ष की बिना तहकीकात किये उसे सीधे कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है।

वैसे मौजूदा स्थिति में भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी के प्रतीक इस कांग्रेस के बारे में यह मानना पड़ेगा कि इसके अब दिन गए या इस पार्टी का अब एक ज्यादा मजबूत और शायद इससे भी बड़ा राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प भारतीय लोकतंत्र के क्षितिज पर भाजपा के रूप में स्थापित हो चुका है। दूसरा देश में क्षेत्रीय स्तर पर उदित और स्थापित हुए तमाम प्रांतीय राजनीतिक दलों ने भी कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व को पिछले तीन दशक में बुरी तरह से चोट पहुंचाई है।

ऐसे में कांग्रेस देश के उन्हीं प्रांतों में अपना अस्तित्व बेहतर बनाये रखने में कामयाब है जहां उसका मुकाबला केवल भाजपा से है या जहां केवल दो दलीय राजनीतिक परिवेश स्थापित है। इस वजह से प्रांतीय दलों से शासित और आच्छादित राज्यों बंगाल, बिहार, यूपी, झारखंड, ओड़िसा, महाराष्ट्र, दिल्ली और तमिलनाडु में यह दल अकेले मुकाबला करने की स्थिति में बिल्कुल नहीं है। दूसरी तरफ कश्मीर, पंजाब, तेलंगाना,आंध्र में यह वहां के क्षेत्रीय दल से मुकाबले में जरूर है परंतु उन क्षेत्रीय दलों के सामने यह पार्टी लगातार कमजोर हुई है।

फिर यह पार्टी उन राज्यों में जहां इसका मुकाबला केवल भाजपा से है मसलन हिमाचल, उत्तरांचल, हरियाणा, राजस्थान, एमपी, गुजरात और कर्नाटक में वहां के दो धु्रवी राजनीतिक परिवेश में एक ध्रुव यह अपने पास रखने में कामयाब है। जबकि केरल में यह पार्टी गैर भाजपा घटक सीपीएम के बरक्श कायम है। वैसे भारतीय लोकतंत्र में देखा जाये तो चुनावों में प्रो इन्कमबेंसी और एंटी इन्कमबेंसी के माहौल से हर राजनीतिक दल प्रभावित होते रहे हैं जिसमें कभी कोई राजनीतिक दल लाभान्वित होता तो कभी कोई नुकसान उठाता है।

परंतु कांग्रेस को अभी हो रहा नुकसान प्रो और एंटी इन्कमबेंसी की अवधारणा से अलग तरह का है। भारतीय राजनीति के मौजूदा परिवेश में कांग्रेस के सामने दो बड़ा संकट है। भारत की सबसे पुरानी और भारत के आजादी आंदोलन की कर्णधार रही कांग्रेस पार्टी के समक्ष पहला यक्ष प्रश्र है, इसके चारित्रिक, वैचारिक और नैतिक व्यक्तित्व में उभरे अनेकानेक संदेहों को दूर कर इसके गौरवशाली अतीत के झरोखे में इसकी एक संपूर्ण पहचान बनायी जाये।

दूसरा यक्ष प्रश्र है भारत के मौजूदा राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और राष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनजर एक बेहतर वैकल्पिक शासन अवधारणा का आविर्भाव किस तरह किया जाये। जरूरी नहीं कि ये दोनों बातें कांग्रेस की मौजूदा राजनीतिक विफलता के लिए सीधे सीधे जिम्मेदार हों। चुनावों में किसी पार्टी की जीत और हार तो उसकी तात्कालिक परिस्थितियों में जनमत के रूझान और उसकी अपनी सांगठनिक मजबूती से बहुत कुछ तय होता है।

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