एक खांटी लखनउआ और लोकप्रिय नेता का जाना

प्रद्युम्न तिवारी
लालजी टंडन अब हमारे बीच नहीं हैं। इस विनम्र, मिलनसार और जनप्रिय नेता के संबंध में क्या कहा जाये। टंडन जी को अपनी ड्योढ़ी से जो लगाव था, वह इसी से समझा जा सकता है कि मंत्री रहते हुए भी दिन उनका माल एवेन्यू वाले सरकारी आवास पर बीतता था लेकिन रात अपने सोंधी टोला वाले घर पर ही बिताते थे। बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्य बने और उसी के संस्कारों से ओतप्रोत टंडन ने राष्ट्रीयता को अपना मूल मंत्र मानकर जब राजनीति के मैदान में कदम धरा तो कोई नहीं जानता था कि ये शख्स एक दिन देश के लोकप्रिय नेताओं में शुमार होगा। टंडन जी बातचीत में कहते भी थे कि उन्होंने भाऊराव देवरस, पंडित दीनदयाल उपाध्याय और अटल-आडवाणी से काफी कुछ आत्मसात किया है।

टंडन का संसदीय कौशल भी गजब का था। पहले उच्च सदन में और फिर बाद में विधानसभा में उनकी वाकपटुता और वक्तृत्व कला का लोहा उनके विरोधी भी मानते थे। 70 से 80 के दशक के बीच तो अनेक अखबारों में संसदीय विषयों पर उनके कालम तक प्रकाशित होते थे।
कहने को तो टंडन नेता थे लेकिन उनके खांटी लखनउआ मिजाज के सभी कायल थे। टंडन के जाने के साथ ही मानो लखनऊ के एक युग का अंत भी हो गया। लखनऊ के विकास को लेकर उनके मन में जो उछाह था, उसी का नतीजा है कि एक समय बेहद संकरा चौक जैसा चौराहा भी आज जगमग होकर लखनऊ की शान में शुमार होता है।

तमाम विरोध और कोर्ट-कचहरी के विवादों के बाद भी शहर की अनेक सड़कों को चौड़ी करने का सेहरा भी उन्हीं के सिर बंधता है। सड़कें चौड़ी करने के लिए अनेक मंदिरों, मजारों को हटाया भी गया लेकिन यह टंडन ही थे कि उन्होंने बातचीत का रास्ता निकालकर इस दुरूह कार्य को भी आसान बना दिया। उन्हीं की देन है कि आज लखनऊ की उन कई सड़कों और चौराहों पर वाहन फर्राटे भरते नजर आते हैं, जहां पैदल तक चलना मुश्किल होता था। चौक चौराहे के ठीक बीचोबीच एक संकरा गुंबदनुमा गेट होता था। वर्ष 1991 में जब भाजपा सरकार बनी तो टंडन को आवास एवं नगर विकास विभाग का मंत्री बनाया गया।

फिर क्या था, टंडन उस गेट को हटाकर चौराहा और सड़कें चौड़ी करने के अभियान में जुट गये। बहुत विरोध हुआ। पर, टंडन ने विपक्षी नेताओं और नामचीन स्थानीय लोगों को समझाकर यह कार्य सम्पन्न करा दिया। लखनऊ और उसके इतिहास से छेड़छाड़ को लेकर उनके मन में एक जबर्दस्त टीस रहती थी। वह यह कि लखनऊ को सिर्फ नवाब, कबाब और शबाब तक ही सीमित कर दिया गया है। साहित्यकार अमृतलाल नागर का जिक्र करते हुए बताते थे कि एक बार लक्ष्मण टीले के आसपास सीवर आदि के सिलसिले में खुदाई हो रही थी। उसमें से जो भग्नावशेष निकलते थे तो नागर जी टंडन को खंडहर में उतारकर वे निकलवाते थे।

फिर बताते भी थे कि वे कितने पुराने हो सकते हैं। टंडन की लखनऊ के इतिहास को लेकर यही चिंता उनकी पुस्तक ‘अनकहा लखनऊ’ के रूप में सामने आयी। पुस्तक का विमोचन होने के पहले ही यह चर्चित हो गयी, क्योंकि इसमें लखनऊ को नये सिरे से परिभाषित किया गया है। कहा जाये तो टंडन लखनऊ निष्ठ ही नहीं अवध की विरासत के जीवंत वाहक थे। टंडन जी ने पुस्तक में स्वीकार भी किया है कि वे न तो इतिहासकार हैं और न ही पुरातत्ववेत्ता, लेकिन बचपन से लेकर अब तो जो उन्होंने देखा, सुना, भोगा, महसूस किया, लिपिबद्ध करके पुस्तक का आकार देकर लखनऊ या कहें कि अवध की समग्रता को समेटने का प्रयास किया।

टंडन लिखते भी हैं कि ‘क्या उस लखनऊ का इतिहास चंद इमारतों, चंद नवाबों और चंद बेगमों तक सिमट कर रह जायेगा जो लखनऊ सनातन संस्कृति का प्रतीक स्थल रहा हो, जिस अवध की संस्कृति से सारा संसार प्रेरणा पाता हो, जहां आज भी रामराज्य के अवशेष दिखते हों। जिस अवध में योग, भोग और शौर्य का संगम रहा हो, वहां क्या हम सिर्फ भोग को ही चित्रित करेंगे।’ इसी से समझा जा सकता है कि टंडन के मन में लखनऊ को लेकर कितनी ललक रही होगी। वह राजनेता भी ऐसे थे कि दलीय मतभेदों को निजी संबंधों पर हावी नहीं होने देते थे। किस दल में और कौन ऐसा नहीं था जिससे उनकी अंतरंगता न रही हो।

ऐसा भी नहीं था कि भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस का होने के नाते उनसे अन्य समुदाय के लोग दूर रहते हों। न, यही तो टंडन की खुसूसियत थी कि उनके चाहने वाले हर धर्म और हर संप्रदाय में थे। इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि टंडन जब बिहार के राज्यपाल बनाये गये तो लखनऊ के कन्वेंशन सेंटर में उनका सम्मान समारोह आयोजित किया गया। उस समारोह की अध्यक्षता की थी वरिष्ठ कांग्रेस नेता तथा पूर्व मंत्री डा. अम्मार रिजवी ने और स्वागताध्यक्ष थे खांटी कांग्रेसी नेता और पूर्व महापौर डा. दाऊजी गुप्त। इस समारोह में स्वयं अम्मार रिजवी ने मंच से बताया था कि उनके कांग्रेसी मित्रों ने पूछा था कि अम्मार साहब क्या आप भी संघी हो गये हैं जो इस समारोह की अध्यक्षता करने जा रहे हैं। इस पर अम्मार साहब का जवाब था – ‘नहीं मैं संघी नहीं हुआ। मैं तो टंडन जी का आशिक हूं, इसलिए अध्यक्षता कर रहा हूं। ऐसी शख्सियत थे टंडन जी।

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